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श्वेताम्बर आगम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में आचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के अन्थों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगबाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता। श्वेताम्बर परम्परा में अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया । श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हुआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। आचार सम्बन्धी जैसा नियम
और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा के कल्पसूत्र, श्रोत-सूत्र और गृह-सूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेदसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं।
. मेरे मन के कण-कण में अणु-अणु में आगम साहित्य के प्रति गहरी निष्ठा रही है। मेरा यह स्पष्ट अभिमत है कि कर्म रूपी व्याधि को नष्ट करने के लिए आगम साहित्य संजीवनी बूटी के समान है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बीतराग भगवान की वाणी में जो सारतत्त्व रहा हुआ है वह अल्पज्ञों की वाणी में कदापि नहीं मिल सकता । तिजोरी बिना चाबी के नहीं खुल सकती वैसे ही बिना गुरुगम के आगमों के गहन रहस्य समझ में नहीं आ सकते । यही कारण है कि बिना गुरुगम के अध्ययन करने से सर्वज्ञ की वाणी का सही अर्थ न ज्ञात होने से अर्थ के अनर्थ भी
प्रस्तुत ग्रन्थ में उसी आगम-वाणी का एवं उसके व्याख्या साहित्य का संक्षेप में परिचय दिया गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को आगम की महत्ता का परिज्ञान हो सके। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी महाराज एवं पूजनीया मातेश्वरी प्रकृष्ट प्रतिभा की धनी महासती श्री प्रभावतीजी महाराज एवं ज्येष्ठ भगिनी परमविदुषी महासती पुष्पवतीजी महाराज की हार्दिक इच्छा थी कि मैं आगम साहित्य पर लिखू। उन्होंने समय-समय पर मुझे प्रेरणा भी दी। एक बार मैंने लिखना प्रारम्भ भी किया किन्तु अन्यान्य लेखन कार्य में व्यस्त होने से उस कार्य में प्रगति नहीं हो सकी। सन् १९७५ का वर्षावास हमारा पूना (महाराष्ट्र) में था। सौराष्ट्र प्रान्त के महान् प्रभावशाली सन्त कविवर्य नानकचन्दजी म० के शताब्दी ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना बनी । बम्बई महासंघ के अध्यक्ष स्थानकवासी समाज के मूर्धन्य मनीषी श्री चिमनभाई चक्कुभाई शाह का मुझे अत्यधिक आग्रह