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________________ ( १८ ) प्रकाश में आ सका है । आशा है इन सभी का निरन्तर मधुर सहयोग भविष्य में भी मिलता रहेगा। जिससे साहित्य के क्षेत्र में मैं सतत प्रगति करता रहूँगा । मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ जन-जन के अन्तर्मानस में वीतराग वाणी के प्रति गहरी निष्ठा पैदा करेगा - साम्प्रदायिक विषमता मिटाकर समता समुत्पन्न करेगा | जातिवाद, पंथवाद, गुरुडमवाद, रंगभेद, गुटपरस्ती और हठवादिता के जहरीले जन्तु जो आधुनिक मानव के मानस में पनप रहे हैं जिससे वह चिरपरिचितों के मध्य में रहकर भी बिलकुल अपरिचित, अजनबी और पराया हो रहा है, वह मानसिक कुण्ठाओं एवं वैयक्तिक पीड़ाओं से पीड़ित, संत्रस्त व संतप्त हो रहा है । अपने आवेगों पर नियंत्रण न रखकर विवेकहीन होकर उसकी पूर्ति के लिए अहर्निश प्रयास कर रहा है। पागल कुत्ते की तरह इन्द्रिय-सुखों के विषयों की ओर लपक रहा है और उनकी पूर्ति न होने पर आत्मघात की ओर प्रवृत्त हो रहा है। वस्तुतः ये आत्म हत्या के आंकड़े दिल को दहलाने वाले और हृदय को झकझोरने वाले हैं। ऐसी विषम बेला में आगम साहित्य का अध्ययन, चिन्तन, मनन और स्वाध्याय व्यक्ति के जड़ोन्मुखी दृष्टिकोण को बदलकर आत्मोमुखी बना सकता है । उसके मानसिक तनाव को कम कर सकता है। उसमें समता, सरलता, स्नेह, सौजन्य जैसे सद्भावों के सुन्दर सुगन्धित सुमन खिला सकता है, सुख-शान्ति की सरस सरिता प्रवाहित कर सकता है। इसी आशा व उल्लास के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न प्रबुद्ध पाठकों को समर्पित करते हुए मेरा मन अत्यन्त आह्लादित है। हृदय आनन्द विभोर हैं । अक्षय तृतीया श्रवणबेलगोला, बाहुबली (कर्णाटक) दि. २१-४-७७ -- देवेन्द्र मुनि
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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