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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
का कामसुख, इष्ट गंध-रस और स्पर्शरूप-भोग सुख, संतोष, आवश्यकता की पूर्ति, सुखयोग, निष्क्रमण, निराबाधसुख मोक्ष। दश प्रकार की क्रोध की उत्पत्ति के कारण, दश आश्चर्य, आदि ।
उपसंहार
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'प्रस्तुत आगम में स्व-समय पर समय व स्व-पर समय दोनों की स्थापना की गई है। संग्रहनय की दृष्टि से जहाँ जीव में एकता का प्रतिपादन किया गया है वहाँ व्यवहारनय की दृष्टि से उसकी भिन्नता बताई गई है। संग्रहनय के अनुसार चैतन्य गुण की अपेक्षा जीव एक है। व्यवहारनय की दृष्टि से हर एक जीव विभेदात्मक होता है। जैसे -- ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से उसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। उत्पाद, व्यय और प्रोव्य की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं।
चार गति में परिभ्रमण करने की दृष्टि से चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। पारिणामिक आदि पाँच भावों की दृष्टि से उसे पाँच भागों में विभक्त कर सकते हैं। संसार में संक्रमण के समय पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण ऊर्ध्व अधो इन छः दिशाओं में गमन करने की दृष्टि से छः भागों में विभक्त करें सकते हैं । स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् अस्तिनास्ति, स्याद् अवक्तव्य, स्याद् अस्ति वक्तव्य, स्याद् नास्ति अवक्तव्यं, स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य इस प्रकार सप्तभंगी की दृष्टि से वह सात भागों में विभक्त किया जा सकता है। आठ कर्मों की दृष्टि से उसे आठ भागों में विभक्त कर सकते हैं। नव पदार्थों में परिणमन करने की अपेक्षा से उसे नौ भागों में विभक्त किया जा सकता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय की दृष्टि से वह दश भागों में विभक्त किया जा सकता है ।"
इस तरह स्थानांग में पुद्गल आदि की एकत्व तथा दो से दश तक की पर्यायों का वर्णन है। पर्यायों की अपेक्षा से एक तत्त्व अनंत भागों में विभक्त हो सकता है और द्रव्य की अपेक्षा से अनंत भाग एक तत्त्व में समा सकते हैं। अभेद और भेद की यह व्याख्या प्रस्तुत आगम में देखी जा सकती है ।
१ कषायपाहुड भाग १, पृ० १२३
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