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३. स्थानांग सूत्र नाम-बोध
स्थानांग का द्वादशांगी में तीसरा स्थान है। यह शब्द स्थान और अंग इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। 'स्थान' शब्द अनेकार्थी है। उपदेशमाला में स्थान का अर्थ 'मान' अर्थात् परिमाण दिया है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक की परिमाण-संख्या का उल्लेख है अतः इसे स्थान कहा गया है। स्थान शब्द का दूसरा अर्थ 'उपयुक्त' भी होता है। इसमें तत्त्वों का क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है । अत: इसे स्थान कहा गया है। स्थान शब्द का तीसरा अर्थ 'विधान्ति स्थल' भी है और अंग का सामान्य अर्थ विभाग है। इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है अत: इसका नाम 'स्थानांग' या 'ठाणांग' है। शैली
स्थानांग व समवायांग इन दोनों आगमों में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है। जीव, पुद्गल आदि विषयों पर विस्तार से विश्लेषण न कर संख्या की दृष्टि से संकलन किया गया है। यह एक प्रकार से कोश की शैली में प्रथित है जो स्मरण रखने की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है। यह शैली जैनपरंपरा में ही नहीं अपितु वैदिक एवं बौद्ध परंपरा में भी प्राप्त होती है। महाभारत के वनपर्व, अध्याय १३४ में भी प्रस्तुत शैली में ही विचार संग्रहीत किये गये हैं और बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय पुग्गलपति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्म-संग्रह में भी यही शैली दृष्टिगोचर होती है।
जैनागमों में तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं। उनमें श्रुत स्थविर के लिए 'ठाणसमवायधरे' यह विशेषण बताया है। इससे ठाणांग और समवायांग का कितना महत्व है, यह सहज ही स्पष्ट होता है।