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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा आर्द्रकमुनि - वर्ष भर में एक ही प्राणी की हिंसा करने वाले भी साधु अहिंसक नहीं हो सकते, क्योंकि वे प्राणिवध से सर्वथा मुक्त नहीं हुए हैं। हिंसा करते हुए भी उन्हें अहिंसक माना जाय तो फिर गृहस्थों को भी अहिंसक मानना होगा, क्योंकि वे भी अपने कार्यक्षेत्र के बाहर के जीवों की हिंसा नहीं करते । साधु कहलाते हुए भी जो वर्ष में एक भी जीव की हिंसा करते हैं, या उस हिंसा का समर्थन करते हैं, वे अनार्य हैं। वे अपना हित नहीं कर सकते और न केवलज्ञान ही पा सकते हैं । ૪ तथारूप स्वकल्पित धारणाओं का अनुसरण करने की अपेक्षा जिस मानव ने ज्ञानी की आज्ञानुसार मोक्ष मार्ग में मन, वचन, काया से अपने आपको स्थित किया है तथा जिसने दोषों से अपनी आत्मा का संरक्षण किया है और जिसने संसार समुद्र को तैरने के साधन प्राप्त किये हैं, वही मानव दूसरों को धर्मोपदेश दे । इसके पश्चात् हस्ती-तापसों को निरुत्तर करके आर्द्रकमुनि भगवान महावीर के पास गये। भगवान को विधिपूर्वक नमस्कार करके स्वप्रतिबोधित पाँचसो तस्करों व तापसादि को दीक्षा देकर उन्हीं के सुपुर्द किया।" सातवें अध्ययन का नाम नालंदीय है । नालंदा राजगृह नगर का ही एक विभाग था । वहाँ पर प्रायः धनकुबेर लोग रहते थे। लेप नामक गाथापति ने भवन निर्माण से बची हुई सामग्री से 'सेसदविया' नामक उदकशाला का निर्माण कराया था। उस उदकशाला के विशाल कोणस्थ वनखंड के एक भाग में गणधर गौतम के साथ पाश्र्वापत्य पेढालपुत्र का मधुर संवाद हुआ और पेढालपुत्र गणधर गौतम से प्रतिबोध पाकर भगवान महावीर के पास चातुर्याम धर्म को छोड़कर पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार करता है । १ आर्द्रकमुनि के समक्ष गोशालक आदि विरोधी पक्षों ने भगवान महावीर के जीवन एवं सिद्धान्त पर जो आक्षेपपूर्ण प्रहार किये हैं— उनसे पता चलता है कि भगवान की विद्यमानता में ही उनके प्रति कितनी भ्रान्तियाँ फैलाई गई थीं और विरोधी कितने आक्षेप उन पर करते थे। आर्द्रकमुनि ने सभी का तर्कसंगत समाधान करके विरोधों का परिहार किया ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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