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६२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा कहना, संयमी साधक के लिये अयोग्य है । जो इस प्रकार का उपदेश देते हैं या सुनते हैं वे दोनों ही अज्ञान व अकल्याण को प्राप्त करने वाले हैं। जिन्हें स्थावर और जंगम प्राणियों के स्वरूप का ज्ञान है, जो अप्रमत्त होकर संयम व अहिंसा का परिपालन करना चाहते हैं, क्या वे इस प्रकार की बात कह सकते हैं ? मन से तो बालक को बालक समझना और ऊपर से उसे तुम्बा कहना, क्या यह संयमी पुरुष के योग्य है ? खूब हृष्ट-पुष्ट भेड़ को मारकर, उसे अच्छी तरह से काटकर, उसके मांस में नमकादि डालकर या तेलादि में तलकर तुम्हारे लिये तैयार करते हैं, उस मांस को तुम खाते हो और ऊपर से कहते हो-हमें पाप नहीं लगता। यह कथन तुम्हारे कर स्वभाव व रस-लम्पटता का द्योतक है। यह स्पष्ट है कि कोई अनजान में भी मांसादि का सेवन करता है तो वह पापार्जन ही करता है।
प्राणिमात्र के प्रति जिनके अन्तर्मानस में दया की भावनाएं अंगड़ाइयाँ ले रही हैं, जो सावध कार्यों का त्याग करते हैं, ऐसे भगवान महावीर के भिक्षु, दोष की आशंका से उद्दिष्ट-भोजन ग्रहण नहीं करते हैं, जिससे स्थावर और जंगम प्राणियों को कष्ट हो। संयमी पुरुष का धर्म-पालन कितना सूक्ष्म है।
रक्तरंजित हाथ वाला व्यक्ति, जो प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुओं को भोजन खिलाता है, वह पूर्ण असंयमी है। खूनी व्यक्ति इस लोक में भी तिरस्कृत होता है और परलोक में भी श्रेष्ठ गति प्राप्त नहीं करता।
जिस वचन से पापोत्तेजना होती हो वह वचन कभी नहीं बोलना चाहिये।
आर्द्रकमुनि के अकाट्य समाधानों के आगे बौद्धभिक्षु निरुत्तर हो गये, तो वेदवादी ब्राह्मण आगे बढ़े।
वेदवादी-जो अनुदिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन खिलाता है, वह पुण्य की राशि एकत्र कर देव-गति में उत्पन्न होता है-ऐसा हमारा वेदवाक्य है।
आर्द्रकमुनि--मार्जार की तरह घर-घर भटकने वाले, दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है, वह मांसाहारी पक्षियों से परिपूर्ण, तीव्र वेदनामय नरक में जाता है। दयाधर्म का परित्याग कर, हिंसा प्रधान धर्म को स्वीकार करने वाला, शीलरहित ब्राह्मण को जो खिलाता है, वह अंधकार