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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ११ आर्द्रकमुनि--तुमको मेरे धर्माचार्य के प्रबल प्रभाव का पता नहीं है। वे निष्प्रयोजन कोई काम नहीं करते। वे वहीं ठहरते हैं जहाँ प्रयोजन की निष्पत्ति हो। वे वहीं प्रत्युत्तर देते हैं जहाँ प्रयोजन सिद्ध होता हो। इसका हेतु भीरुता नहीं वरन् प्रवृत्ति की सार्थकता है। गोशालक -- जैसे लाभार्थी वणिक क्रय-विक्रय की वस्तु लेकर महाजनों से सम्पर्क सूत्र बढ़ाता है वैसे ही तुम्हारे महावीर भी लाभार्थी वणिक हैं। आर्द्रकमुनि-महावीर को वणिक् की उपमा देना सर्वथा असंगत है। वे नवीन कर्मों का संवर करते हैं और पुराने कर्म-समूह का क्षय करते हैं, वणिक-व्यक्तियों की तरह वे हिंसादि पापकृत्यों से चतुर्गति भ्रमण का लाभ भी नहीं करते। उनका लाभ आदि-अंत से रहित है। उनकी तुलना वणिक् के साथ करना अज्ञानता का परिचायक है। आर्द्रकमुनि के तर्कपूर्ण प्रश्नोत्तरों को सुनकर गोशालक निरुत्तर हो चला गया । आर्द्रकमुनि आगे बढ़े तो बौद्ध-भिक्षुओं से निम्न वार्तालाप हुआ। बौद्धभिक्षु---आर्द्रक ! तुमने वणिक् के दृष्टान्त से बाह्यप्रवृत्ति का खंडन करके बहुत ही अच्छा किया। हमारा भी यही सिद्धान्त है कि बाह्यप्रवृत्ति बंध-मोक्ष का प्रधान कारण नहीं, अपितु अन्तरंग व्यापार ही उसके मुख्य अंग हैं। हमारी दृष्टि से कोई पुरुष खली-पिण्ड को भी पुरुष मानकर पकाये या तुम्बे को बालक मानकर पकाये तो वह, पुरुष और बालक के वध का ही पाप करता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पूरुष या बालक को खली या तुम्बा समझकर भेदित करता है, या पकाता है तो वह पुरुष व बालक के वध का पाप उपाजित नहीं करता। हमारे मतानुसार वह पक्व मांस पवित्र है और बुद्धों के आहार-योग्य है। हमारी दृष्टि से जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक (बोधिसत्व) भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह देवगति में आरोप्य' नामक सर्वोत्तम देव होता है। आर्द्रकमुनि-प्राण-भूत की हिंसा करना और उसमें पाप का अभाव १ सूत्र० वृत्ति थु० २ अ० ६ गा० २६ शीलांकाचार्य, प्र० श्री गोडी जी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी, बम्बई। २ दीघनिकाय महानिदानसुत्त में बुद्ध ने, कामभव, रूपभव, अरूपभव ये तीन प्रकार के भव बताए हैं । अरूपमव का अर्थ निराकार लोक है ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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