SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा लिये बहमूल्य उपहार भेजे। उस समय आईककुमार ने भी अभयकुमार के लिये उपहार भेजे। पुनः राजगृह से भी अभयकुमार की ओर से श्रमण परम्परा के कुछ धार्मिक उपकरण भेजे गये। उन्हें देखते-देखते आर्द्रक को पूर्वजन्म की स्मृति हो आई और वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का श्रद्धालु बनकर दीक्षित भी हो गया। वहां से भगवान महावीर के दर्शन के लिये राजगृह की ओर विहार किया। उन्हें मार्ग में विभिन्न मतों के अनुयायी मिले। उन्होंने आर्द्रककुमार से धर्म-चर्चाएं की, आर्द्रककुमार मुनि ने सभी मतों का खण्डन कर भगवान महावीर के मत का समर्थन किया। वह बिचार-चर्चा का प्रसंग इस प्रकार है। सर्वप्रथम आर्द्रककुमार मुनि की गोशालक से भेंट हो गई। गोशालक ने परिचय प्राप्त कर कहा--आर्द्रककुमार ! तुम महावीर के पास जा रहे हो, यह आश्चर्य है। महावीर तो अस्थिर विचार वाले हैं, कभी कुछ कहते हैं, तो कभी कुछ । पहले वे अकेले रहते थे, अब भिक्षुसंघ से घिरे रहते हैं। पहले वे मौन रखते थे, अब उपदेश की धुन सवार हो गई है। पहले वे तपश्चरण करते थे अब प्रतिदिन भोजन। पहले वे रूखा-सूखा भोजन करते थे अब सरस भोजन। इस प्रकार तुम्हारे महावीर का जीवन विरोधाभासों में परिव्याप्त है, अत: मैंने तो उनका सहवास त्याग दिया। __ आर्द्रकमुनि--महावीर के जीवन में कोई विसंगति नहीं है। आपने महावीर के जीवन-रहस्य का सही ढंग से निरीक्षण नहीं किया। भगवान महावीर का एकान्तभाव त्रिकालवर्ती है। वे राग-द्वेष से अतीत हैं अत: सहस्रों के समुदाय में भी एकान्त साधना कर रहे हैं। भगवान पहले सत्य की साधना कर रहे थे, तब उनकी वाणी मौन थी, अब उन्हें सत्य प्रत्यक्ष हो चुका है, वही सत्य वाणी द्वारा प्रगट हो रहा है। भगवान साधना काल में अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रयाण कर रहे थे। उस समय कोई उनका शिष्य कैसे बनता? अब वे पूर्णता में स्थित हैं, अतः अपूर्ण साधक पूर्णता का अनुगमन कर रहे हैं। इसमें विसंगति कहाँ है ? गोशालक ने आर्द्रककुमार के समाधान पर प्रावरण डालते हुए कहा-तुम्हारे धर्मगुरु महावीर अतिभीरु हैं क्योंकि जिन अतिथि-ग्रहों और आराम-गृहों में बड़े-बड़े उद्भट विद्वान परिव्राजक ठहरते हैं वहाँ महावीर नहीं ठहरते, सोचते हैं कोई प्रतिभासम्पन्न भिक्षु मुझ से कुछ पूछ न बैठे।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy