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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा दृष्टि के विपर्यय के कारण मित्र को शत्रु समझकर उसे मार देने का नाम दृष्टिविपर्यास है । ८५ स्वयं के लिए या स्वयं के परिजनों के लिए असत्य बोलना, बुलवाना और बोलने वाले का समर्थन करना मृषाप्रत्ययदण्ड है । . इसी प्रकार तस्कर कर्म करना, करवाना और करने वाले का समर्थन करना अदत्तादानप्रत्ययदण्ड है। निरन्तर चिन्ता में मग्न रहना, अप्रसन्न, भयभीत व संकल्प-विकल्प में डूबे रहना, अध्यात्मप्रत्ययदण्ड है । जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, प्रज्ञा, प्रभृति के मद से अपने को महान व दूसरों को हीन समझना मानप्रत्ययदण्ड है । अपने मित्रों को या सन्निकट में रहने वाले परिजनों को किंचित् अपराध पर भारी दण्ड देना यह मित्रदोषप्रत्ययदण्ड है । मायायुक्त अनर्थकारी प्रवृत्ति करना माया प्रत्ययदण्ड है । लोभ के वशीभूत होकर हिंसक प्रवृत्ति में उलझने वाले लोभप्रत्ययदण्ड के भागी होते हैं । जो शनैः-शनैः विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, जितेन्द्रिय, अपरिग्रही, समिति गुप्तिधारक हैं वह धर्महेतुक प्रवृत्ति क्रियास्थान है। यह क्रियास्थान आचरणीय है। शेष जो क्रियास्थान हैं वे हिंसापूर्ण होने से अनाचरणीयत्याज्य हैं। द्वितीय अध्ययन का नाम आहार परिज्ञा है। इस अध्ययन में आहार की विस्तृत चर्चा है। इसमें मानव के आहार के सम्बन्ध में कहा है कि उसका आहार ओदन, कुल्माष, श्रस एवं स्थावर प्राणी है। परन्तु देव व नारक के आहार की चर्चा नहीं है। नियुक्ति और वृत्ति में ओज आहार, रोम आहार और प्रक्षेप आहार ये आहार के तीन प्रकार बताये हैं । तैजस 'व कार्मण शरीर द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे ओज आहार कहा है । अन्य आचार्यों के अभिमतानुसार जब तक इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास • एवं द्रव्यमन का निर्माण न हुआ हो तब तक केवल शरीर पिण्ड द्वारा जिस आहार को ग्रहण करते हैं वह ओज आहार है । रोम रूप ग्रहीत आहार रोम आहार है । देवों में और नारकों में रोम व ओज आहार होता है कवल ( प्रक्षिप्त ) आहार नहीं होता ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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