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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन
द्वादशवें अध्ययन का नाम समवसरण है। यहाँ पर देवादिकृत समवसरण विवक्षित नहीं है। नियुक्तिकार ने समवसरण का अर्थ सम्मेलन, मिलन व एकत्र होना किया है। चूर्णिकार व वृत्तिकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी और क्रियावादी इन चार समवसरणों का वर्णन किया है। इसमें एकान्त क्रियावाद व एकान्त ज्ञानवाद से मुक्ति नहीं मानी है, किन्तु ज्ञान-क्रिया के समन्वय से मुक्ति मानी है। निर्युक्तिकार ने क्रियावादी के १८०, अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२ कुल ३६३ भेद बताये हैं । ये भेद किन कारणों से हुए हैं इस पर नियुक्तिकार ने कोई प्रकाश नहीं डाला है ।
त्रयोदशवें अध्ययन का नाम यथातथ्य है। इसमें बताया है कि क्रोध के दुष्परिणाम जानकर शिष्य को पापभीरु, लज्जावान्, श्रद्धालु, अमायी व आज्ञापालक होना चाहिए। मदरहित साधना करने वाला साधक ही सच्चा पण्डित, सच्चा विज्ञ और मोक्षगामी है ।
चतुर्दशवें अध्ययन का नाम ग्रन्थ है। नियुक्तिकार की दृष्टि से ग्रन्थ का सामान्य अर्थ परिग्रह है। वह बाह्य व आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है । बाह्य ग्रन्थ के क्षेत्र वास्तु, धन-धान्य, ज्ञातिजन, वाहन, शयन, आसन, दासी दास विविध सामग्री ये दश प्रकार हैं । बाह्य ग्रन्थों में आसक्ति रखना परिग्रह है । आभ्यन्तर परिग्रह के क्रोध, मान, माया, लोभ, स्नेह, द्वेष, मिथ्यात्व, कामाचार, संयम में अरुचि, असंयम में रुचि, विकारी हास्य, शोक, भय, घृणा ये चौदह प्रकार हैं। जिन्हें दोनों प्रकार के ग्रन्थों में रुचि नहीं है और जो संयम मार्ग की आराधना करते हैं, वे साधक हैं। साधक को प्रथम गुरुजन का सहवास आवश्यक है। अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, आज्ञापालन और अप्रमाद साधना के प्रमुख अङ्ग हैं। साधक को इन सद्गुणों का आचरण करना चाहिए।
पञ्चदशवें अध्ययन का नाम आदान या आदानीय है। निर्युक्तिकार की दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन की गाथाओं में जो पद प्रथम गाथा के अन्त में आता है, वही दूसरी गाथा के आदि में आता है ।
वृत्तिकार का अभिमत है कि कुछ लोग प्रस्तुत अध्ययन को संकलिका नाम भी देते हैं। इसके प्रथम पद्य का अन्तिम वचन एवं