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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा लिए शस्त्रविद्या का अध्ययन करते हैं और प्राणियों की हिंसा के लिए मंत्रादिक का अभ्यास करते हैं, यह कर्मवीर्य है। अकर्मवीर्य में संयम की प्रधानता होती है। संयम साधना में ज्यों-ज्यों विकास होता है त्यों-त्यों अक्षय. सुख की उपलब्धि होती हैं । ८४ नवम अध्ययन का नाम धर्म है। नियुक्तिकार ने कुलधर्म, नगर धर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म, गणधर्मं, संघधर्मं, पाखंडधर्म, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, गृहस्थधर्म, पदार्थधर्म आदि विविध रूप से धर्म शब्द का प्रयोग किया है, पर मुख्य रूप से धर्म के दो प्रकार हैं-लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म । प्रस्तुत अध्ययन में लोकोत्तर धर्म का निरूपण है । श्रमणधर्म के दूषणरूप कुछ तथ्य इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं : १-असत्य वचन २- बहिद्धा अर्थात् परिग्रह एवं अब्रह्मचर्यं ३ --अदत्तादान अर्थात् चौर्य ४ - वक्रता अर्थात् माया-कपट परिकुंचन-पलिउंचण ५- लोभ-भजन- भयण ६- क्रोध- स्थंडिल- थंडिल ७- मान उच्छ्रयण-उस्सयण इनके अतिरिक्त धावन, रंजन, वमन, विरेचन, स्नान, दंतप्रक्षालन प्रभृति दूषित प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए आहार सम्बन्धी दूषण बताये हैं जिनका भिक्षु आचरण न करे । दशम अध्ययन का नाम समाधि है । समाधि का अर्थ तुष्टिसंतोष प्रमोद और आनंद है । भद्रबाहु ने समाधि के द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव के रूप में चार प्रकार बतलाये हैं। जिन सद्गुणों से जीवन में समाधिभाव अठखेलियाँ करे वह भावसमाधि है । प्रस्तुत अध्ययन में भावसमाधि पर बल दिया गया है। किसी भी वस्तु का संचय न करना, समस्त प्राणियों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना किसी अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना और पाप कार्य से उसी प्रकार डरते रहना जैसे मृग सिंह से डरता है । एकादश अध्ययन का नाम मार्ग है। यहाँ पर साधक को समाधि के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तपोमार्ग का आचरण करना चाहिए, यह उपदेश दिया गया है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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