SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन आगम में स्व-समय और पर-समय की तुलनात्मक सूत्रता के अर्थ में आचार की स्थापना की गई है, एतदर्थ इसका सम्बन्ध सूचना से है। समवायांग और नन्दी में स्पष्ट निर्देश है 'सूयगडेणं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जति ससमयपरसमया सूइज्जति ।। ___ जो सूचक होता है वह सूत्र कहलाता है । इस आगम में सूचनात्मक तत्त्व की प्रमुखता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। ___कषाय पाहुड में आचार्य वीरसेन ने लिखा है कि सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है। इस आगम की रचना का मूल आधार यही है । अत: इसका नाम सूत्रकृत रक्खा गया है । सूत्रकृत का अन्य व्युत्पत्ति कृत अर्थ की अपेक्षा प्रस्तुत अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। सुत्तगड और बौद्धों का सुत्तनिपात ये दोनों नामसाम्य की अपेक्षा अधिक सन्निकट हैं। विषय-वस्तु ___ समवायांग में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए लिखा है कि इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष आदि तत्वों का विश्लेषण है एवं नवदीक्षित श्रमणों की आचरणीय हित-शिक्षाओं का उपदेश है। १८० क्रियावादी मतों, ८४ अक्रियावादी मतों, ६७ अज्ञानवादी मतों एवं ३२ विनयवादी मतों की चर्चा की गई है। इस प्रकार कुल ३६३ मतों का निरूपण किया गया है। सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन हैं। ३३ उद्देशनकाल, ३३ समुद्देशनकाल, ३६ हजार नन्दीसूत्र में कहा है कि सूत्रकृतांग में लोकालोक, जीव, अजीव, स्वसमय और परसमय का निर्देशन किया गया है और क्रियावादी अक्रियावादी प्रभृति ३६३ पाखण्डों (मतों) पर चिन्तन किया गया है। दिगम्बर साहित्य अङ्गपण्णत्ती, जयधवला, धवला व राजवातिक प्रभृति में जो सूत्रकृताङ्ग का परिचय दिया गया है वह बहुत अंशों में श्वेताम्बर साहित्य से मिलता-जुलता है। दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमण १ (क) समवाओ, पइण्णग समवाओ, सू०६. (ख) नंदी सूत्र ८२ २. कषाय पाहुड, भा० १, पृ० १३४
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy