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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ७७ चतुर्थ विमुक्ति नामक चूलिका में ममत्वमूलक आरंभ और परिग्रह के फल की मीमांसा करते हुए उनसे दूर रहने की प्रेरणा दी गई है। साधक को पर्वत के समान निश्चल रहकर सर्प की कैंचुली के समान ममत्व को उतारकर फेंक देना चाहिए। इस चूलिका में ग्यारह गाथाएँ हैं।
इस प्रकार आचारांग सूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों में २५ अध्ययन व ८५ उद्देशक हैं। हम पहले ही बता चुके हैं कि महापरिज्ञा नामक अध्ययन लुप्त हो चुका है अतः वर्तमान में आचारांग के २४ अध्ययन व ७८ उद्देशक हैं।
गोमट्टसार, धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ती, राजवातिक प्रभृति दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आचारांग का जो परिचय दिया है उसमें बताया है कि मन, वचन, काय, भिक्षा, इर्या, उत्सर्ग, शयनासन एवं विनय इन आठ प्रकार की शुद्धियों का वर्णन है। प्रस्तुत कथन आचारांग के द्वितीय श्रतस्कन्ध में पूर्णरूप से घटित होता है। उसमें आचार के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डाला गया है जैसा कि हम पूर्व लिख चुके हैं। उपसंहार
आचारांग के उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि द्वादशांगी का यह प्रथम अंग सर्वाधिक प्राचीन है। इसकी भाषा भी पश्चिमी विद्वानों के मतानुसार २५०० वर्ष पुरानी है। इसमें वर्णित आचार मूलभूत है। अन्य ग्रंथों में इसी में वर्णित आचार का विकास हुआ है। इस अंग में आचार के साथ-साथ दार्शनिक तथ्यों का निरूपण भी सुन्दर ढंग से हुआ है। शैली भी सूत्रात्मक है।
इसकी भावना नामक तृतीय चूलिका में भगवान महावीर का चरित्र भी वर्णित किया गया है। भगवान का स्वर्गच्यवन, गर्भापहरण, जन्म, दीक्षा, उपसर्ग, केवलज्ञान, निर्वाण आदि का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से हुआ है।
. .: इस प्रकार आचार और आराध्यदेव के जीवन-चरित्र एवं दार्शनिक तथ्यों के निरूपण से श्रद्धा, तर्क और आचार-दूसरे शब्दों में सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी का सुन्दर संगम आचारांग में हआ है।