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________________ ७६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा हो । पोसग-ताडपत्र के पत्तों से बना हो। खोमिय---कपास से बना हो एवं तूलकर-आक आदि की रुई से बना हो। श्रमण बहुत बारीक, सुनहले, चमचमाते हुए एवं बहुमूल्य वस्त्रों का उपयोग न करे । विनयपिटक में बौद्ध श्रमणों के वस्त्रों का उल्लेख है, पर उनके लिए बहमूल्य वस्त्र लेने अथवा न लेने के सम्बन्ध में कोई नियम नहीं है। किन्तु जैन श्रमणों के लिए बहुमूल्य वस्त्रों का उपयोग स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। छठे पात्रैषणा नामक अध्ययन में पात्र-ग्रहण की विधि बताई गई है । जो श्रमण युवक, बलवान व स्वस्थ हैं उन्हें एक पात्र रखना चाहिए और वह पात्र अलावू (तुम्बा) काष्ठ व मिट्टी का हो। सातवें अवग्रहैषणा नामक अध्ययन में अवग्रहविषयक विवेचन है। अवग्रह का अर्थ है किसी के स्वामित्व का स्थान । निर्ग्रन्थ भिक्षु किसी स्थान में ठहरने के पूर्व उसके स्वामी की अनुमति ग्रहण करे। बिना अनुमति के वह किसी के मकान में ठहर नहीं सकता। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे चोरी का दोष लगता है। यह चूलिका गद्यात्मक है। द्वितीय चूलिका में भी स्थान, निशीथिका, आदि सात अध्ययन हैं और उनमें उद्देशक नहीं है। प्रथम अध्ययन में कायोत्सर्ग आदि की दृष्टि से उपयुक्त स्थान तथा दूसरे अध्ययन में निशीथिका प्राप्ति के सम्बन्ध में सूचन किया गया है। तीसरे अध्ययन में दीर्घशंका व लघुशंका के स्थान के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। दीर्घशंका व लघुशंका ऐसे स्थान पर करनी चाहिए, जिससे किसी प्राणी के जीवन की विराधना न हो। चौथे और पांचवें अध्ययन में शब्द और रूप के प्रति राग-द्वेष न करने का श्रमण के लिए विधान है। तृतीय भावना नामक चूलिका में भगवान महावीर का पवित्र चरित्र उदकित है । भगवान का स्वर्ग से च्यवन, गर्भापहार, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं निर्वाण का वर्णन है। साधनाकाल में विघ्न आये किन्तु कहाँकहाँ पर भगवान का विचरण हुआ और कहाँ-कहाँ किस प्रकार के उपसर्ग उपस्थित हुए इसका इसमें उल्लेख नहीं है। पर यह सत्य है कि महावीर की जीवन-झांकी सर्वप्रथम इसी आगम में प्राप्त होती है। उसका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसमें प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाओं का भी प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत चूलिका में २४ गाथाएँ हैं और शेष गद्यपाठ हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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