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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ७५ मुनि को आहारदान दिया। उस समय अन्य अनेक भिक्षुओं को जो अग्यतीर्थी हैं, वहाँ पर उपस्थित थे उन्हें कहा-तुम यह सब आहार साथ बैठकर खा लेना या सबको बांट देना। यह नियम है कि जैन श्रमण अन्य सम्प्रदाय के साधुओं को आहार नहीं देता और न उनके साथ बैठकर ही खाता है। किन्तु प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में ऐसे अपवाद का भी उल्लेख हुआ है। यदि सभी भिक्ष चाहें तो साथ बैठकर खा लें और सभी यह चाहते हों कि अपना विभाग उन्हें दे दिया जाय तो वह उनका विभाग उन्हें दे देता है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग नहीं।
दूसरे शय्यषणा नामक अध्ययन में सदोष-निर्दोष शय्या के सम्बन्ध में अर्थात आवास के सम्बन्ध में चिंतन किया गया है।
तीसरे इय॑षणा अध्ययन में चलने की विधि का प्रतिपादन किया गया है और अपवाद में नदी पार करते समय नाव में बैठने की विधि बताई गई है। पानी में चलते समय या नौका से नदी को पार करते समय पूर्ण सावधानी रखने का संकेत किया गया है। यदि सन्निकट स्थल मार्ग हो तो जलमार्ग से गमन करने या निषेध है।
चौथे भाषेषणा अध्ययन में वक्ता के लिए सोलह वचनों की जानकारी आवश्यक बताई गई है। भाषा के विविध प्रकारों में से किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए, किसके साथ किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए, भाषा प्रयोग में किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखना अपेक्षित है ? इन सभी पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। .
पांचवें वस्त्रषणा अध्ययन में श्रमण किस प्रकार वस्त्र ग्रहण व धारण करे? जो श्रमण युवक हो, शक्ति सम्पन्न हो, स्वस्थ हो उसे एक वस्त्र धारण करना चाहिए। श्रमणी को चार संघातियां रखनी चाहिए। जिनमें से एक दो हाथ चौड़ी हो, २ तीन हाथ चौड़ी हों और १ चार हाथ चौड़ी हो। श्रमण किस प्रकार के वस्त्र ग्रहण करे, इस सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए कहा है-जंगिय-ऊँट आदि के ऊन से बना हो। भंगिय-द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की लार से बना हो । साणिय-सण (सन) की छाल से बना
१ सं० आचार्य आत्माराम जी महाराज : आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, उ०५,
सूत्र २६, पृ० ८३०-६३१ ॥