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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ७३ अचेलक श्रमण संयम-साधना में स्थित है उसके मानस में यह विचार उत्पन्न हो कि मैं तृणस्पर्श, शीत, उष्ण, डांस-मच्छर आदि के परीषहों को सहन करने में तो पूर्ण समर्थ हैं पर लज्जा को जीतने में असमर्थ हैं तो उस स्थिति में कटिबंधन को धारण करना कल्पता है।
आठवें उद्देशक में पण्डितमरण का हृदयस्पर्शी वर्णन है। संयम साधना करते हुए जब साधक का शरीर निर्बल हो जाय, स्वाध्याय आदि करने का सामर्थ्य भी न रहे तो उसे बाह्य-आभ्यंतर ग्रन्थियों का परित्याग कर अनशन स्वीकार करना चाहिये। भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण, पादपोपगमन इन तीन प्रकार के संथारों में क्रमश: साधक को जीवन और मरण दोनों में समान रूप से अनासक्त रहकर न जीने की अभिलाषा करनी चाहिए और न मरने की। सभी प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक वृत्तियों को अवरुद्ध कर केवल आत्मरमण करना चाहिए। अनशन की अवस्था में जिस समय किसी प्रकार का उपसर्ग उपस्थित हो उस समय साधक को समभाव में स्थित रहकर कर्मों की निर्जरा करनी चाहिए। यदि उस समय चित्ताकर्षक रमणीय भोगों का प्रलोभन भी दिया जाय तो भी उसे विचलित नहीं होना चाहिए।
नवें अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है और उसके चार उद्देशक हैं। यह संपूर्ण अध्ययन गाथात्मक है। नियुक्तिकार ने उपधान शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि तकिया द्रव्य उपधान है जिससे शयन करने में सुविधा प्राप्त होती है और तप भाव उपधान है जिससे चारित्र पालन में सहायता प्राप्त होती है। जैसे शुद्ध जल से मलिन वस्त्र शुद्ध होता है वैसे ही तप से आत्मा निर्मल बनती है। भगवान महावीर एक आदर्श व महान् श्रमण थे। उनका विशुद्ध तपोमय जीवन ही श्रमण जीवन का ज्वलन्त आदर्श है।
प्रथम उद्देशक में श्रमण भगवान महावीर द्वारा दीक्षा से दो वर्ष पूर्व सचित्त का त्याग, दीक्षा के पश्चात् विहार, पर-पात्र व पर-वस्त्र का त्याग और तेरह माह पश्चात् देवदूष्य वस्त्र का परित्याग बताया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि भगवान महावीर ने पूर्व तीर्थंकरों की परम्परा का निर्वाह करने के लिए ही देवदूष्य वस्त्र धारण किया था किन्तु
१ आचारांग ८७१११
आयारो, पृ० २६४