SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा वस्तु को किसी भी स्थिति में ग्रहण न करे। यदि गृहस्थ अप्रसन्न होकर ताड़न-तर्जन भी करे व कष्ट भी दे तो श्रमण को उसे शांतभाव से सहन करना चाहिए। । तृतीय उद्देशक में एकचर्या, भिक्षुलक्षण आदि का वर्णन करने के बाद यह कहा है यदि किसी श्रमण के शरीर-कंपन को निहार कर किसी गृहस्थ के अन्तर्मानस में यह शंका उद्भूत हो कि यह श्रमण कामोत्तेजना के कारण काँप रहा है तो श्रमण को समीचीन रूप से उसकी शंका का निरसन करना चाहिए। चतुर्थ उद्देशक में एक श्रमण के वस्त्र-पात्रादि की मर्यादा का निर्देश किया गया है और यह बताया गया है कि सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित सचेलक व अचेलक अवस्थाओं को समभावपूर्वक सम्यक् प्रकार से जाने और समझे। यदि ऐसी विषम परिस्थिति समुत्पन्न हो जाय जिसमें अनुकूल या प्रतिकूल परीषह उपस्थित हों और वह उनको सहन करने में असमर्थ हो तो प्राणों को न्यौछावर करके भी संयम की रक्षा करनी चाहिए। पांचवें उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि दो वस्त्र एवं एक पात्रधारी, एक शाटक-धारी या अचेलक साधक समभाव से परीषहों को सहन करे । नानाविध अभिग्रह धारण कर श्रमण सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म को सम्यक प्रकार से जानकर अपने अभिग्रह का यथार्थरूप से पालन करे और अन्त में समाधिपूर्वक प्राणों का त्याग करे।। छठे उद्देशक में श्रमण को यह बताया गया है कि यदि उसने एक वस्त्र और एक पात्र रखने का अभिग्रह ग्रहण किया है तो शीत आदि परीषह समुत्पन्न होने पर दूसरे वस्त्र, पात्र की आकांक्षा न करे। साधक यह चिन्तन करे कि मैं एकाकी है। मेरा इस विश्व में कोई भी नहीं है और न मैं स्वयं किसी का है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि रस का आस्वादन न करते हुए आहार ग्रहण करे और उसे जब यह विश्वास हो जाय कि संयम साधना, तपः आराधना व रोगादि के कारण शरीर अत्यन्त क्षीण व अशक्त हो गया है तो वह निर्दोष घास की याचना कर एकान्त शान्त स्थान में भूमि का परिमार्जन कर समाधिपूर्वक इंगितमरण का वरण करे। इस अनशन में नियत क्षेत्र में संचरण किया जा सकता है इसलिए इसे इत्वरिक कहा गया है। यहाँ पर इत्वरिक का अर्थ अल्पकालीन नहीं है। सातवें उद्देशक में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो प्रतिमाधारी
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy