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________________ 1 है, जिसमें पार्थक्य समाप्त होते हैं : कहै कबीर मैं हर गुन गाऊँ, हिंदू तुरुक दोऊ समझाऊँ। कबीर समन्वय पंथ की सीमाएँ जानते हैं कि यह अस्थायी भी हो सकता है, इसलिए एक प्रबुद्ध संत की तरह वे ऐसी समभूमि की तलाश करते हैं, जहाँ विभेद का अवसर ही न हो : कबीर सीमाओं के अतिक्रमण का आग्रह करते हैं - स्वयं से बाहर आना सामाजीकृत होना भी है और उच्चतर मूल्य-स्तर पर आध्यात्मिक भी : हदै छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर वास, कवल जु फूल्या फूल बिन, को निरखै निज दास । कबीर इसे सहज पंथ कहते हैं, सहजता का दर्शन काव्य के माध्यम से प्रतिपादित करते हुए। सहजता दुर्लभ गुण है जो भक्तिमार्ग में अनिवार्य है और जिसे शास्त्रीय रूप देने का प्रयत्न भी किया गया । यौगिक शब्दावली से प्राप्त शब्द कबीर के काव्य में प्रयुक्त हुए हैं, जो कई बार अर्थ तक पहुँचने में कठिनाई भी उपस्थित करते हैं, पर कबीर सर्वत्र शास्त्रीय अर्थ में ही उनका उपयोग करते हों, ऐसा नहीं है । यहाँ कवि की सर्जनात्मक कल्पना सक्रिय है । देवीशंकर अवस्थी ने कबीर की असंगतियों का संकेत किया है ( भक्ति का संदर्भ, पृ. 117 ) । पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कबीर की सामाजिक चेतना और आध्यात्मिकता में संयोजन की कठिनाई भी उपस्थित करता है । पर जहाँ वह वृहत्तर संवेदन - संसार में विलयित है और उच्चतर मूल्य-संसार का निष्पादन हुआ है, वहाँ कवि के मानवीय प्रयोजन तक पहुँचा जा सकता है। कबीर ने सहज-साधना का आग्रह किया है : साधो, सहज समाधि भली अथवा सो जोगी जाके सहज भाइ, अकल प्रीति की भीख खाइ । कबीर के लिए सहज साधना आत्मसाक्षात्कार है, जहाँ इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर योगी आत्मस्वरूप में स्थित है । सहजता विकाररहित जीवन पर आश्रित है, जहाँ चेतना सर्वोच्च मूल्य-धरातल पर पहुँचती है। सहज होना ब्रह्म ज्ञान, चरम सत्य में सहायक है, पर यह जितेंद्रिय द्वारा ही संभव है और सहजता का यह लोक 'चरम सुख' से संपन्न है, जिसे कबीर ने कई प्रकार से कहा है । यह अनिर्वचनीय सुख है : सुख-दुख के इक परे परम सुख, तेहि में रहा समाई | सहज - साधना का यह मार्ग अत्यंत कठिन है : सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्हें कोइ, जिंहि सहजै विषया तजी, सहज कहीजै सोइ । यह सहज मार्ग महारस का निर्माता है : रस गगन गुफा में अजर झरै, उच्चतम् मूल्य-संसार । कबीर की यौगिक शब्दावली स्वतंत्र अध्ययन का विषय है और विचारणीय यह कि प्रचलित पारिभाषिक शब्दों को उन्होंने किस अर्थ में प्रयुक्त किया है। इससे उनके समाजदर्शन को समझने में सहायता मिलती है। उनका यौगिक शब्द - भांडार बड़ा है, जिसमें पारिभाषिक शब्द हैं- कुंडलिनी, मूलाधार पद्म, ब्रह्मरंध्र, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि जो सिद्ध-नाथ साहित्य में भी प्रयुक्त हुए हैं। कबीर ने अपने मूल्य- आशय के लिए शून्य, निरंजन, अनहद नाद, अवधूत, ब्रह्मज्योति, सुरति-निरति, ब्रह्मांड आदि कई शब्दों का प्रयोग किया है। इन्हें सार्थक अभिव्यक्ति देने के लिए वे पूरा प्रतीक-संसार गढ़ते हैं-धरती, आकाश, नदी, अमृत, समुद्र, सूर्य, चंद्रमा आदि का । कवि द्वारा शब्दों कबीर : जो घर फूँकै आपना चलै हमारे साथ / 103
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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