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________________ की भक्तिसाधना का केंद्रबिंदु प्रेमलीला है, जो व्यापक और विशाल है' (कबीर, पृ. 187)। 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ' उनका परम वाक्य है। कबीर ने आध्यात्मिक रतिभाव की परिकल्पना की और स्वयं को 'राम की बहुरिया' के रूप में प्रस्तुत किया। एक में वे स्वयं को 'राम का कूता' कहते हैं, जिसका नाम मुतिया है और जो दास्य भाव का, प्रपत्ति-समर्पण का प्रतीक है। दूसरी ओर स्वयं को बहरिया रूप में चित्रित करते हैं, प्रगाढ़ प्रीतिभाव, जो रागात्मकता से संपन्न है। कबीर में यह आध्यात्मिक प्रेमभाव विस्तार से आया है और उन्होंने आध्यात्मिकता के वृत्त को पूर्ण करने के लिए आंतरिक वियोग की कल्पना की है, जब आत्मा ब्रह्म अथवा परम सत्य की प्राप्ति के लिए विकल होती है : चकवी बिछुरी रैणि की, आइ मिली परभाति, जे जन बिछुरे राम सूं, ते दिन मिले न राति । स्वयं को आध्यात्मिक विरहिणी की स्थिति में रखकर कबीर सत्य के साक्षात्कार का आग्रह करते हैं। वेदना का यह स्वरूप उच्चतर धरातल का बोध कराता है, जिसे सूफियों ने 'इश्क हकीकी' कहा। इस मूल्यगत पीड़ा से चेतना शुद्ध होकर निखरती है और कबीर ने इसके लिए चातक का उपयोग किया है : नैनां नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम, पपीहा ज्यूँ पिव-पिव करौं, कबरु मिलहुगे राम। जायसी, सूर, मीरा में भी इस आध्यात्मिक वियोग की स्थिति व्यक्त हुई है, जहाँ आशय उच्चतम मूल्य-संसार की ओर प्रयाण है। यह साधना की प्रक्रिया है, जिससे गुज़रकर ही परम सत्य को पाया जा सकता है। कबीर आध्यात्मिक रतिभाव को एक मार्मिक पद में व्यक्त करते हैं कि साधना की उपलब्धि ऐसी कि परमात्मन् पति स्वयं वरण के लिए आए हैं : दुलहिनीं गावहु मंगलचार हम घरि आए राजा राम भरतार तन रत करि मैं मन रति करिहौं पाँचउ तत्त बराती राम देव मोरै पाहुने आए मैं जोबन #माती कबीर के अद्वैतवाद-एकेश्वरवाद में विभेद की सीमाएँ टूटती हैं, इसलिए उन्होंने इसका वरण किया। एक साथ कई प्रश्नों के उत्तर यहाँ मिल जाते हैं : राम-रहीम में कोई अंतर नहीं, हिंदू तुरुक का करता एकै। एक पद में कबीर इस अद्वैत भाव को व्यक्त करते हुए अभेद संसार का संकेत करते हैं : हम तो एक एक करि जानां दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग, जिन नाहिंन पहिचानां। एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा एक ही खाक गढ़े सब भाड़े, एक ही सिरजनहारा। यह अद्वैतभाव दार्शनिक शब्दावली का है और इसकी व्याख्याएँ भी अलग-विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि। पर कबीर में यह व्यापक आशय का शब्द है-सामाजिक चेतना से लेकर आध्यात्मिक लोक तक। यह समदर्शी की समान भूमि 102 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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