SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विचारों से कुछ स्थलों पर अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। आचार्य रामचन्द्र ने तलसी के लोकधर्म को रेखांकित किया : 'आज जो हम फिर झोंपड़ों में किसानों को भारत के भायप भाव पर, लक्ष्मण के त्याग पर, राम की पितृभक्ति परपलकित होते हुए पाते हैं, वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से' (गोस्वामी तुलसीदास, 1.34)। बुद्धिवादी आचार्य के इस वक्तव्य में किंचित् भावुकता की झलक हो सकती है. पर यह है एक समर्थ आलोचक द्वारा विराट व्यक्तित्व की सामाजिक चेतना की महज स्वीकृति । आचार्य शुक्ल ने तुलसी के विवेचन को सही प्रस्थान दिया, जो परंपरा प्रगतिवादियों तक चली आई है-डॉ. रामविलास शर्मा, रमेश कुन्तल मेघ और विश्वनाथ त्रिपाठी तक। विदेशियों ने भी तुलसी का अध्ययन किया है, जिसमें बरान्निकोव जैसे मार्क्सवादी हैं। तुलसी के नवमूल्यांकन के प्रयत्न भी हुए हैं, जैसे महाकवि तुलसी और यग-संदर्भ (भगीरथ मिश्र), तुलसी-नवमूल्यांकन (रामरतन भटनागर) आदि। नई पीढ़ी का ध्यान भी इस ओर गया है : वीरेन्द्र मोहन, अरुण मिश्र आदि का। डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में : 'तुलसी की भक्ति समाज के लिए अफ़ीम नहीं थी। वह जनजागरण का एक साधन थी। भक्त तुलसीदास मूलतः मानववादी हैं' (परंपरा का मूल्यांकन, पृ. 88)। भक्तिकाव्य में तुलसीदास को समन्वय का कवि कहा गया है, इसे समझने की आवश्यकता है। समन्वय ऐसा चतुर समझौतावाद भी हो सकता है जहाँ लेखक की प्रतिबद्धताएँ ही पता न चलें। पर सार्थक रचना ऐसी चालाकी से दूर रहती है और वह अपना सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व जानती है। तुलसी ने रामचरितमानस के आरंभ में, 'नानापुराण निगमागमसम्मतं' कहकर परंपरा को स्वीकृति दी, पर उसे अपने समय-संदर्भ में देखा। यहाँ राम पुनःसर्जित हए, अपने लोकधर्मी मानववादी गुणों के साथ, जिसे आचार्य शुक्ल 'राम का शील' कहते हैं और जो ज्ञान-कर्म से संयोजित होकर अर्थवान बनता है। इस शील की व्यापक ध्वनि है, जिससे विराट व्यक्तित्व का बोध होता है। तुलसी के राम फलप्रद हैं : नाम राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु (बाल. दोहा 26)। तुलसी का समय विचित्र अंतर्विरोधों का था, एक जटिल समय : एक ओर सामंती विलास, दूसरी ओर विपन्नता में डूबे सामान्यजन। जातियाँ-उपजातियाँ टकरा रही थीं, दर्शन दुर्बल था, कर्मकांड बढ़ रहा था, शैव-वैष्णव-शाक्त आपस में टकरा रहे थे, सौमनस्य का अभाव था। नारियों की स्थिति चिंत्य थी, बाह्याडंबर प्रभावी था और समाज अंधविश्वासों से घिर गया था। इन ढेरों अंतर्विरोधों के बीच से सही मार्ग की खोज तुलसी का समन्वय पंथ हो सकता है, यदि इस शब्द के उपयोग की अनिवार्यता ही हो, तो। अन्यथा मध्यकालीन 'कलिकाल' से टकराते हुए तुलसीदास अपनी सजग चेतना से नई लोकवादी-मानववादी अवधारणा निष्पादित करते हैं, जिसका माध्यम है, रामकथा। वे सगुण-निर्गुण, ज्ञान-भक्ति में संप्रदायगत भेद स्वीकार नहीं करते और ज्ञान-समन्वित भक्ति को भक्तिकाव्य का स्वरूप / 87
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy