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________________ समय क्या है और जीवन-रेखाएँ कैसी ? नाभादास (भक्तमाल), वेणीमाधवदास ( गोसाईंचरित), कृष्णदत्त मिश्र ( गौतम चन्द्रिका) आदि में जो संकेत मिलते हैं, उन्हीं से जीवन-रेखाएँ बनाने का प्रयत्न किया जाता है, पर ये इतिहास- ग्रंथ नहीं हैं, इसलिए इनमें जनश्रुतियाँ और चमत्कार - अंश भी हैं । रचनाओं के भीतर से जो जीवन-रेखाएँ और व्यक्तित्व के कोण तलाशे जाते हैं, वे कहीं अधिक प्रामाणिक होते हैं, कवि की कल्पनाशीलता के बावजूद। संवत् सोलह सौ इकतीस (1574 ई.) रामचरितमानस का रचनाकाल है, जो अकबर के शासन का समय था ( 1556-1605 ) । विद्वानों का बहुमत तुलसी के जन्मस्थान के लिए राजापुर के पक्ष में दिखाई देता है। जन्म के लिए 'मूल गोसाईंचरित' को आधार माना जाय तो समय होगा 1554 वि., 1497 ई., पंद्रहवीं शताब्दी का अंत और निधन तिथि होगी श्रावण तीज शनिवार, 1680 वि., 1623 ई. : सवा सौ वर्षों का सार्थक जीवन। पंद्रहवीं-सोलहवीं के संधिस्थल पर जन्मे तुलसी ने सोलहवीं शताब्दी पार की और सत्रहवीं का आरंभ भी देखा, जो इतिहास की दृष्टि से मुग़लकाल का सर्वोत्तम समय - बाबर से जहाँगीर तक का लगभग शासन काल । रचना को रूपायित करने में सामाजिक परिदृश्य है और स्वयं तुलसी की संघर्षगाथा भी। 1526 में पानीपत का युद्ध जीतकर बाबर ने मुग़ल शासन के केंद्रीय सामंतवाद की स्थापना की और विचार-विनिमय की प्रक्रिया में गति आई । बाबर, स्वयं लेखक था, पर जल्दी चला गया और हुमायूँ के सूफियाना अंदाज़ ने जिस उदार पंथ का स्वप्न देखा, उसे अकबर ने पूर्णता पर पहुँचाया। तुलसी इसी समय की उपज हैं, पर उससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं । निराला ने महाकवि का सही आकलन किया है कि तुलसी के समक्ष सामान्यजन का संसार है : चलते-फिरते, पर निस्सहाय/ वे दीन, क्षीण, कंकालकाय / आशा केवल जीवनोपाय, उर- उर में। तुलसी की अपनी संघर्ष - कथा भी इसमें सम्मिलित है : बारें तें ललात - बिललात द्वार-द्वार दीन / जानत हो चारि फल चार ही चनक को ( कवितावली, उत्तर. 73 ) । आत्मकथा की जो रेखाएँ तुलसी की रचनाओं में उपलब्ध हैं कि सर्वोच्च द्विज वर्ण-ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी, जीवन संघर्ष - भरा था । माता - पिता की आशीष - छाया भी नहीं मिली : मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो, बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई ( कवितावली, उत्तर. 57 ) । द्वार-द्वार भटकते तुलसी ने समय-समाज को देखा - समझा और उसी के बीच से अपने रचना-पथ का संधान किया । वैयक्तिकता को पार कर जाना सामाजिकता है और तुलसी इसके प्रमाण हैं । 1 तुलसी के समाजदर्शन की चर्चा आगे होगी, पर यहाँ इतना कहना पर्याप्त है कि जो लोग महाकवि को भक्ति तक सीमित करके देखते रहे हैं, वे भी इस विराट प्रतिभा से साक्षात्कार के लिए विवश हैं । तुलसी के विश्लेषण से आलोचना स्वयं को सार्थक मानती है और इस महान् व्यक्तित्व के प्रति वे भी आकृष्ट हुए, जो कवि 86 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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