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________________ वह कभी शाही-वृत्तांतों में आता तो एक दुर्घटना ही होती क्योंकि फिर जिस सांस्कृतिक संकल्प को लेकर भक्तिकाव्य सक्रिय हुआ, उसमें बाधा आती। बाधाएँ कई थीं, समय-परिवेश की, कवियों के अपने अंतःसंघर्ष की भी, पर भक्तिकाव्य ने इसे लाँघा और नए सांस्कृतिक परिवेश की परिकल्पना की, अपने समय की सीमाओं में ही सही। कई प्रकार के विरोधी युग्म बनाकर भक्तिकाव्य को देखने का प्रयत्न सही नहीं है क्योंकि कई बार वह हमारे पूर्वाग्रहों की भी उपज है, जैसे कबीर में विद्रोह और तुलसी में परंपरा / भक्तिकाव्य वैविध्य-भरा काव्य है और कवि मध्यकालीन सामंती समय से अपने-अपने ढंग से निपटते हैं। पर भक्तिकाव्य का जो समग्र समवेत स्वर उभरता है, वह अपने ईमान में सच्चा-खरा है और लोक से प्रेरणा लेता हुआ, वह अपनी सर्जनशीलता उसी को सहज प्रतिदान भाव से समर्पित कर देता है। ईश्वर-मनुष्य की मैत्री को वह रेखांकित करता है और स्वयं अपनी सार्थक वाणी से लेखक-पाठक का अंतराल पाटता चलता है। यह कम उपलब्धि नहीं है कि उसने आधुनिक रचनाशीलता को किसी बिंदु पर उद्वेलित किया-निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, नरेश मेहता, भारतभूषण, विजयदेवनारायण साही, धर्मवीर भारती से लेकर कुँवरनारायण और केदारनाथ सिंह तक / कुँवरनारायण की कविता : 'अयोध्या, 1992' में राजनीति पर टिप्पणी है : इससे बड़ा क्या हो सकता है, हमारा दुर्भाग्य/ एक विवादित स्थल में सिमटकर, रह गया तुम्हारा साम्राज्य और अमानुषीकरण की व्यथा भी : हे राम, कहाँ यह समय, कहाँ तुम्हारा त्रेता युग/कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम और कहाँ यह नेता युग।
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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