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________________ परंपरागत जीवन-प्रणाली की अनुकृति देखने को मिलती है तो दूसरी ओर उसमें मानव के विचार-जगत् के नए आयामों का परिचय मिलता है और उभरती हुई नई जीवन-दृष्टि भी उसमें चित्रित होती है। मानव की परिकल्पना संबंधी स्थायी और परिवर्तनशील तत्त्व, दोनों साहित्य में अभिव्यक्ति पाते हैं। (परंपरा, इतिहास-बोध और संस्कृति, प्र. 155)। भक्तिकाव्य ने अपने समय में इस लक्ष्य तक पहुँचाने का प्रयत्न किया और समकालीन लेखन भी उसके विवेचन में रुचि लेता है, ऐसी स्थिति में उसे सही परिप्रेक्ष्य में देखना प्रासंगिक होगा। पूरनचंद्र जोशी का विचार है कि भारत की महान् सांस्कृतिक विरासत के स्थायी मूल्य भारतीय समाज में परिवर्तन लाने के इच्छुक बुद्धिजीवी वर्ग को प्रेरणा देते रहे हैं। चाहे उपनिषदों के मूल मंत्र 'चरैवेति चरैवेति' को लें, या बुद्ध के 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' सिद्धांत को लें, या नानक, कबीर आदि संतों की करुणा और एकतामूलक, जनवादी, मानववादी, क्रांतिकारी वाणी को लें, या 'वैष्णवजन तो तेणें कहिए जे पीर परायी जाणे रे' के उद्बोधन को लें, या निकट इतिहास से गांधी के इस विचार को लें कि 'प्रत्येक दुखी प्राणी के आँसू पोंछना ही हमारे जीवन की सार्थकता है, तो इस समस्त सदियों पुरानी परंपरा से जनसाधारण के अधिक से अधिक निकट आने की ही प्रेरणा मिलती है' (परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम, पृ.71)। शब्द की आंदोलनकारी भूमिका की सीमाएँ हैं, पर भक्तिकाव्य का ऐतिहासिक रोल यह कि एक कठिन समय में उसने अपने सामाजिकसांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह साहस-भरे ईमान से किया, रचना को सर्वोत्तम ऊँचाई पर पहुँचाते हुए, अन्यथा वह चीख-चिल्लाहट बनकर समाप्त हो जाता। भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका का पूर्ण निर्वाह नहीं कर पाए, इसके कई तर्क दिए जाते हैं, जिसमें प्रायः यह कि समाज की नियंत्रक शक्तियाँ साहित्य से कहीं अधिक प्रभावी साबित हुईं। थोड़ा माक्यूज की इस टिप्पणी पर ध्यान दें कि पूँजीवाद के समाजवाद पर हावी होने का खतरा रहता है। पर कारण और हैं, जिनमें असंगठित समाजों की त्रासदी भी निहित है कि सत्ताओं की उलट-पलट होती है, पर व्यवस्था नहीं बदलती। कहा जा चुका है कि परिपार्श्व में विद्यमान निहित स्वार्थों के वर्ग कुछ समय के लिए ही चुप्पी साधते हैं और अवसर पाते ही फिर मंच पर उपस्थित हो जाते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि जब मध्यकाल में उदारता का दौर आया और सांस्कृतिक संवाद की प्रक्रिया में गति आई तो कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया। सुलहकुल को पूरा समर्थन नहीं मिला और वह अकालकवलित हो गया। सूफ़ियों को सबसे अधिक आक्रमण अपनी ही जाति-बिरादरी के झेलने पड़े। कबीर-जायसी, सूर-तुलसी-मीरा की स्वीकृति में भी समय लगा और जब वे अपनी ही सर्जनात्मकता के बल-बूते पर लोक में पहचाने गए, तब उनकी ओर थोड़ा ध्यान दिया गया। पर राजकीय-शासकीय स्तर पर भक्तिकाव्य अनपुजा ही रह गया, जो उसके लोकधर्मी समाजदर्शन का असंदिग्ध प्रमाण है। यदि भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 233
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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