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पर सबसे दारुण प्रसंग भरत के चित्रकूट-प्रसंग में आता है। भरत राम से अनुनय-विनय करते हैं, पर देवता स्वार्थ-परिचालित हैं और देवगण के साथ इंद्र भी विपरीत दिशा में सोचते हैं, निष्करुण भाव से : सुर गन सहित समय सुरराजू, सोचहिं चाहत होन अकाजू। बनत उपाय करत कछु नाहीं, राम सरन सब गे मन माही (अयोध्याकांड)। देवताओं को यह भी ज्ञान नहीं कि राम वचन-निर्वाह किए बिना घर नहीं लौटेंगे। राम ने कई प्रसंगों में 'देव कुचाली' आदि कहकर उस देवलोक को खारिज किया है, जो एक प्रकार से परजीवी है। तुलसी को अहसास है कि अगोचर देवत्व के सहारे कर्मकांड-पुरोहितवाद फलते-फूलते हैं, और इससे मुक्ति के लिए राम का मानव रूप में अवतरण समय की अनिवार्यता भी है। इस प्रकार वे आस्तिक मानववाद को स्थापित करते हैं : जग मंगल गुन ग्राम राम के, दानि मुकुति धन धरम धाम के।
तुलसी की मानववादी अवधारणा समय-परिचालित है, पर किसी सीमा तक ही और उन्हें किसी भी आधुनिकतावादी दृष्टि से देखना, उनके साथ न्याय नहीं होगा। श्री विष्णुकांत शास्त्री ने इस प्रश्न पर तुलसीदास-संबंधी अपनी पुस्तक में विचार किया है। जहाँ तक सीमाओं का प्रश्न है तो कहा जा सकता है कि वह किसकी नहीं होतीं, पर उन्हें पार करने में ही रचना-क्षमता की ऊर्जा पहचानी जाती है। तुलसी ने स्वयं कहा कि मनुष्य का जीवन बड़े भाग्य से मिलता है : बड़े भाग मानुष तन पावा और राम के व्यक्तित्व से प्रमाणित किया कि ऐसी होती है, मानव की चरितार्थता। मनुष्यों में सर्वोपरि राम के कुछ अलौकिक प्रसंगों को छोड़ दें, तो शेष को मूल्यों के सहारे, संकल्प-भरे कर्म से पार किया जा सकता है। शर्त यह है कि अपने से बाहर निकलने की सामर्थ्य हो, व्यक्तित्व सही अर्थों में सामाजीकृत हो, मानव-कल्याण से परिचालित। तुलसी ने स्वयं कहा कि क्या अंतर पड़ता है : धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ और उनका निर्भय स्वर है : माँगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ (कवितावली. उत्तर.)। इसी क्रम में वे स्वयं को जातिमुक्त घोषित करते हैं : मेरे जाति-पाँत न चहौं काहू की जाति-पाँति । उन्होंने अपने समय की विभीषिका को समाज, धर्म, वर्ण, अर्थ कई स्तरों पर देखा था : खेती न किसान को भिखारी न भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी (वही)। वे जानते थे कि पेट की ज्वाला बड़वाग्नि से अधिक कष्टकर है : आगि बड़वागि तें, बड़ी है आगि पेट की। कलिकाल महाकवि का देखा-भोगा यथार्थ है और इसके समाधान के लिए वे राम और उनके रामराज्य को उभारते हैं। कवि के मानव-दर्शन, भक्तिचिंतन, समाजदर्शन को इसी परिप्रेक्ष्य में देखकर तुलसी के लोकवादी मानववाद को समझा जा सकता है। मात्र सामंती सीमाओं के संदर्भ में टिप्पणी करना अधूरा साक्षात्कार होगा, क्योंकि तब तो रचनाशीलता का समस्त विश्व ही सीमा-केंद्रित होकर रह जाने के संकट में होगा। रचना के संदर्भ में मूल प्रश्न यह भी कि वह अपने समय से टकराती हुई किस वैचारिक-संवेदन क्षमता से आगे
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 207