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________________ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना और सब उदार, परोपकारी । यहाँ तक कि प्रकृति में भी नया विन्यास : फूलहि फलहिं सदा तरु कानन, रहहिं एक संग गज पंचानन । खग-मृग सहज बयरु बिसराई, सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई। जैसा कि कहा गया यह तो रामराज्य का समापन अंश जैसा है, क्योंकि राम का व्यक्तित्व तो पूरी कथा को संचालित करता है, सब पर उनकी उदार छाया है। रामराज्य के इस क्रम में स्वयं राम की चर्चा है : राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती । विस्तार से इसका वर्णन है और इस अवसर पर सनकादि जो स्तुति करते हैं, उनमें राम के गुणों का बखान है : ग्यान निधान अमान मानप्रद, पावन सुजस पुरान बेद बद । तग्य कृतग्य अग्यता भंजन, नाम अनेक अनाम निरंजन । रामराज्य वैचारिक क्षमता से निर्मित है, पर कवि का संवेदन संलग्नता से सम्मिलित है, एक वैकल्पिक मूल्य-संसार का संकेत करता । तुलसी के समाजदर्शन, जीवन-दृष्टि के लिए मानववाद शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, पर अपने समय - संदर्भ के साथ । एक धर्म - सापेक्ष आस्तिक स्थिति है, जिसे प्रायः मानवतावादी कहकर संबोधित किया गया, जिसका एक नैतिक संसार है, जिसे आध्यात्मिक माना गया । भक्तिकाव्य इसी धारणा से संबद्ध कर देखा जाता रहा है। पर आधुनिक समय में पंथ निरपेक्ष मानववाद की परिकल्पना की गई, जिसके केंद्र में ईश्वर के स्थान पर मनुष्य आया। इस मानववाद पर पर्याप्त विचार-विनिमय हुआ है, जिसकी कई शाखाएँ - प्रशाखाएँ विकसित हुईं और भारत में ही एम. एन. राय का रैडिकल ह्यूमनिज़्म अथवा परिवर्तनवादी मानववाद है। मार्क्सवाद को तो मानववाद का एकमात्र दर्शन तक निरूपित किए जाने का प्रयत्न किया गया। बिना सैद्धान्तिक चर्चा के, यदि तुलसी को मध्यकालीन स्थितियों के संदर्भ में देखने का प्रयत्न किया जाय तो महाकवि की मानवीय दृष्टि के कुछ पक्ष समझे जा सकते हैं। माना कि रामकथा के मूल में ईश्वर है - सर्वगुणसंपन्न, पर तुलसी ने राम को मनुष्य रूप में अवतरित किया, उन्हें केंद्र में रखकर पूरा लीला - संसार रचा, कर्म-भरे व्यक्तित्व से चरितार्थता दी और यह सर्जनात्मक क्षमता तथा उदार मानवीय दृष्टि से ही संभव हो सका । तुलसी के लिए राम सर्वोपरि हैं, जिनका प्रस्थान करुणा है, वे दयानिधान हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्षरत हैं । तुलसी ने गणेश वन्दना की है और शंकर तो राम कथा में सर्वत्र उपस्थित हैं- आदि से अंत तक । इसके मूल में कवि का सांस्कृतिक प्रयोजन है, अपने समय के शैव-वैष्णव संघर्ष का समाधान । तुलसी ने अन्य देवताओं को साधारण माना और उन पर टिप्पणियाँ की हैं, जैसे वह कर्महीन बिरादरी है, आकाश में बैठी षड्यंत्र रचती और राम की विजय में प्रसून - वर्षा करती है, बस । विनयपत्रिका के एक पद (145) में तुलसी कहते हैं कि मैं तुम्हारा नाम लेकर अपने हृदय में एक ग्राम बसाना चाहता हूँ क्योंकि : सुर स्वारथी अनीस अलायक निठुर दया चित नाहीं । देवता स्वार्थरत हैं, इसके कई प्रमाण, I 206 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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