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________________ बढ़ी है और उसने कौन से सार्थक चिह्न छोड़े हैं । तुलसी की मानववादी दृष्टि को यदि केवल आज की किसी आधुनिक प्रवृत्ति से विवेचित करने की चेष्टा की जाएगी तो कमज़ोर पक्षों के उदाहरण संदर्भ से काटकर दिए जाएँगे और उन्हें किसी भी गलत विशेषण से परिभाषित किया जाएगा। संभवतः इसीलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के संदर्भ में लोकधर्म, लोकवाद, लोकपक्ष शब्दों का प्रयोग किया और सर्वप्रथम इसे विवेचित किया : 'जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरने वाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे, उनके लिए कोई व्यवस्था न करे, वह लोकधर्म नहीं, व्यक्तिगत साधना है ।' तुलसी के संदर्भ में लिखा कि 'रामचरित के सौंदर्य द्वारा तुलसीदास ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया, वह निष्फल नहीं हुआ' (गो. तुलसीदास, पृ. 33 ) । उल्लेखनीय है कि मार्क्सवादी विद्वानों ने आचार्य शुक्ल के लोकवाद को अपने ढंग से अपनाया और तुलसी के देश-भाव को लेकर विश्वनाथ त्रिपाठी का कथन विचारणीय है : 'तुलसी को बहुत अधिक पीड़ा होती थी देशवासियों की दरिद्रता देखकर । उन्होंने स्वयं भी दरिद्रता भोगी थी - ' बारे तैं ललात बिललात द्वार द्वार दीन' । उनके राम ' गरीबने वाज' और 'दीनबंधु' हैं, इस दरिद्रता को उनके राम दूर करते हैं, रामराज्य की स्थापना से' (लोकवादी तुलसीदास, पृ. 81 ) । तुलसी में लोक इतना रचा-बसा है कि रामचरितमानस तो जैसे उत्तरी भारत का दस्तावेज़ ही बन जाता है। यहाँ की प्रकृति के साथ पूरा परिवेश जैसे उपस्थित है - लोकव्यवहार से लेकर जीवन-यथार्थ तक । वे सामान्यजन की पीड़ा समझते हैं, इसलिए लिख सकते हैं : जाके पैर न परै बिवाई, सो का जानै पीर पराई । तुलसी का लोकजीवन उनके अनुभव में समाया है, उसका एक अविभाज्य अंग है और जीवन-दृश्य बनाने में तो वे उसका उपयोग करते ही हैं, वैचारिक स्तर पर यह यत्न भी करते हैं कि मध्यकालीन असमानता, दैन्य, शरीरवाद आदि का अंत कैसे हो । उनके लोकवाद का एक पक्ष है, समय का दृश्यालेख, प्रवृत्तियों पर टिप्पणी, पर वे एक सजग कवि हैं और इससे आगे निकलकर मुक्ति का उपाय भी खोजते हैं। जिसे कवि का लोकधर्म, लोकवाद अथवा आधुनिक शब्दावली में मानववाद कहा जाता है, उसकी परिधि व्यापक है और स्वतंत्र विवेचन की माँग करती है 1 तुलसी का लोकधर्म एक नैतिक आधार बनाने का प्रयत्न करता है, जिसकी कतिपय मर्यादाएँ और मूल्य निश्चित हैं, जो कुटुम्ब - परिवार, राजा प्रजा, समाज-व्यक्ति, स्त्री-पुरुष आदि के संबंधों को लेकर हैं । ये मर्यादाएँ जब टूटती हैं तो महाकवि को पीड़ा होती है और वे जिस पुनःस्थापना का आग्रह करते हैं, उसे पुनरुत्थानवाद भी कहा जा सकता है । पर इसे मध्यकाल के परिवेश में समझना होगा, जिसकी अपनी सीमाएँ हैं । तुलसी द्वारा विभिन्न स्थलों पर प्रयुक्त पंक्तियों को लेकर अंतर्विरोधों की तलाश भी की जाती है, पर कई बार एक प्रश्न के रूप में है, दूसरा उत्तर के 208 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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