SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन, सबहि भाँति हित मोर। इसीलिए कवितावली में राम के विषय में कहा गया : राजिवलोचन राम चले, तजि बाप को राज बटाउ की नाईं। पर सीता की स्थिति भिन्न है कि उन्हें वनवास की आज्ञा नहीं दी गई है। दशरथ सुमंत्र से कहते हैं कि सीता को समझाना : सासु ससुर अस कहेउ संदेसू, पुत्रि फिरिअ बन बहुत क्लेसू। कौशल्या सीता को 'रूप रासि गुन सील सुहाई' पुत्रवधू के रूप में देखती हैं, सभी उन्हें अयोध्या में रोकना चाहते हैं। राम माता से वनगमन की आज्ञा लेने गए हैं, इसलिए सीता से कुछ कहने में संकोच करते हैं : आपन मोर नीक जौं चहहू, बचनु हमार मानि गृह रहहूँ। वे अनेक प्रकार से समझाते-बुझाते हैं-सास-ससुर की सेवा से लेकर वन की कठिनाइयों तक, पर सीता अडिग हैं। राम कहते हैं : वन की भयंकरता के स्मरण से धीर पुरुष भी काँप जाते हैं और : मृगलोचनि तुम भीरु सुभाएँ। उनके स्नेह-भरे शब्द हैं : हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू, सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू/मानस सलिल सुधा प्रतिपाली, जियहि कि लवन पयोधि मराली। मानसरोवर के अमृत जल की हंसिनी लवण समुद्र में कैसे रहेगी ? नव आम्रवन की विहारिणी कोकिला करील वन में नहीं सुशोभित होती : नव रसाल बन बिहरन सीला, सोह कि कोकिल बिपिन करीला और अंत में कहते हैं : रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी, चंदबदनि दुखु कानन भारी। इसके पूर्व तुलसी सीता की उद्विग्नता का संकेत कर चुके हैं : बैठि नमितमुख सोचति सीता, रूपरासि पति प्रेम पुनीता । तुलसी ने मनोरम उपमा के माध्यम से इसे व्यक्त किया है, जैसे धनुभंग के पूर्व की स्थिति लौटी हो; चारु चरन नख लेखति धरनी, नूपुर मुखर मधुर कवि बरनी/मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं, हमहिं सीय पद जनि परिहरहीं। पहले कौशल्या समझाती हैं कि देवसरोवर के कमलवन की हंसिनी क्या तलैया के योग्य है और फिर राम का उपदेश है, सीता को। पर सीता का तर्क केवल भावुकतावश नहीं है, वह इस दृष्टि से अकाट्य है कि सब संबंध राम से परिभाषित हैं : तनु, धनु धाम धरनि पुर राजू, पतिविहीन सब सोक समाजू। बिना पुरुष के जीवन ऐसा ही जैसे प्राणविहीन शरीर और जल के बिना नदी। बातें नारी समाज की ओर से कही गई हैं, इसलिए मध्यकाल के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं। जिस वन की भयानकता की चर्चा राम ने की थी, उसे सीता नयी दिशा देते हुए कहती हैं कि पशु-पक्षी कुटुम्बी होंगे, वनदेवता-वनदेवी सास-ससुर और कन्द-मूल-फल अमृत जैसे आहार होंगे। तुलसी ने सीता का पक्ष विस्तार से प्रस्तुत किया है, जिसकी ध्वनि है कि राम की वनवास यात्रा में उनका साथ सहधर्मिणी का सबसे बड़ा सुख है। इसे सीता बार-बार दुहराती हैं : चरण सरोज निहारते हुए पथ की थकावट नहीं आएगी। मार्ग में श्रम-परिहार करूँगी : बार-बार मृदु मूरति जोही, लागिहि तात बयारि न मोही। सहधर्मिणी का तर्क है : मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू, तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू ? इस रूप में सीता का व्यक्तित्व उठान लेता है और कवितावली में राम-सीता-स्नेह का दृश्य है : तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै। 190 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy