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पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू। राम-सीता एक-दूसरे को निहारते हैं : प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना, कृपानिधान राम सबु जाना/सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे, चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे। प्रेम प्रेरणा भी है, शक्ति भी। धनुभंग के ठीक पहले यही दृश्य है, जहाँ राम सीता को देखते हैं, संकल्पी अनुराग के साथ :
देखी बिपुल बिकल वैदेही, निमिष बिहात कलप सम तेही तृषित बारि बिनु जो तन त्यागा, मुएँ करइ का सुधा तड़ागा का बरषा सब कृषी सुखानें, समय चुकें पुनि का पछितानें
अस जियं जानि जानकी देखी, प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी राम, सीता, भरत, हनुमान, लक्ष्मण आदि किसी न किसी रूप में समय के विकल्प रूप में प्रस्तुत हैं और मूल्य-संचालित होने के कारण वे प्रतिष्ठित होते हैं। समय का अतिक्रमण जो मूल्य-संसार रचता है, वह कवि की सजग सामाजिक चेतना को बिंबित करता है, समाजदर्शन का अंश है, चरित्रों के माध्यम से। अनसूया के माध्यम से तुलसी ने पातिव्रत धर्म की चर्चा की है, जिसके कुछ अंश अवांछनीय हो सकते हैं, जैसे दीन-हीन पति के अपमान से यमपुर जाना। नारी का अपना पक्ष होता है, वह भी विचारणीय है। पर नारी धैर्य, धर्म, मित्र की कोटि में है, जिसकी परीक्षा विपत्ति में होती है, अर्थात् वह सच्ची सहधर्मिणी है : धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परिखिअहिं चारी। अनसूया सीता को पातिव्रत का प्रतिमान मानती हैं, पार्वती के समान : सुनु सीता तब नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं। सीता की अग्नि-परीक्षा तो तुलसी एक बार कराते हैं, इस संदर्भ के साथ कि जब वे स्वर्णमृग के पीछे भागे थे, तो सुरक्षा की दृष्टि से सीता को अग्नि में रखा था : सीता प्रथम अनल महुँ राखी, प्रगट कीन्ह यह अंतर साखी। सीता का भी पातिव्रत विश्वास कि अग्नि चन्दन के समान शीतल : श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो समिरि प्रभु मैथिली, जब कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली। अग्नि-परीक्षा संक्षेप में एक बार, पर निष्कलंक सीता के व्यक्तित्व की परीक्षा तो बार-बार होती है। धनुषयज्ञ की चर्चा की जा चुकी है, जहाँ विवाह के उपरान्त सीता के राग-भाव के विषय में कवितावली (बाल. 17) का छंद है : राम को रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं, यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। सीता कंगन के नग में राम का प्रतिबिम्ब देखने में मग्न हैं, सब कुछ भूल गई हैं। सीता के इस प्रगाढ़ भाव की निरन्तरता नारी-व्यक्तित्व को गरिमा देती है और तुलसी इसे मध्यकालीन देहवाद के विकल्प रूप में देखते हैं।
सीता का व्यक्तित्व खुलता है, वनवास के समाचार से। राम के लिए तो यह स्वाभाविक है क्योंकि वे हर्ष-विषाद के परे हैं-और कैकेयी को माँ कहकर संबोधित करते हैं : सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी, जो पितु मातु बचन अनुरागी/तनय मातु पितु तोषनि हारा, दुर्लभ जननि सकल संसारा। तर्क भी है : मुनिगन मिलनु बिसेषि
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 189