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सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को मुनि मन अगम जम नियम सम दम विषम ब्रत आचरत को दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को
कलिकाल तुलसी से सठिन्ह हठि राम सनमुख करत को। प्रायः तुलसी की नारी-दृष्टि को लेकर टिप्पणियाँ की जाती हैं और उन्हें प्रतिगामी संस्कारों का व्यक्ति घोषित किया जाता है। जिस सामंती समाज में तुलसी जी रहे थे, उसमें स्त्रियों की स्थिति चिन्त्य थी, इसमें संदेह नहीं। इतिहासकार इसका उल्लेख करते हैं कि भोग-विलास के साथ सामंती समाज में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन था, यहाँ तक कि बड़े हरम भी थे (ए. रशीद : सोसायटी एंड कल्चर ऑफ़ इंडिया, पृ. 141)। तुलसी स्थितियों से अपरिचित नहीं थे। मैना पार्वती को विदा करते हुए कहती है : कत बिधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। कुछ अन्य उक्तियों को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किया जाता है, जिसका समाधान किया जा चुका है कि इसमें कुछ अंश मायावाद का हो सकता है अथवा लोकोक्तियों का और कुछ सामंती समाज के विषय में टिप्पणी के रूप में। पर तुलसी नारी वैशिष्ट्य के रूप में रामचरितमानस के आरंभ में पार्वती का तप बखानते हैं और सीता की परिकल्पना सर्वोपरि नारी के रूप में करते हैं-जगज्जननी। सीता का रूप-वर्णन संभव नहीं, कवियों ने व्यर्थ प्रयास किया : विधाता ने मानों अपने संपूर्ण कौशल से इस रूप का निर्माण किया : छबिगृह दीपसिखा जनु बरई। सीता-राम के पूर्वानुराग की चर्चा हो चुकी है, पर यहाँ विचारणीय है सीता का मर्यादा भाव, जिसका उल्लेख इसलिए क्योंकि मध्यकाल में मर्यादाएँ टूटी थीं। तुलसी सीता को नारी-पवित्रता के प्रतिमान रूप में गढ़ते हैं, उन्हें 'छबि सुधा पयोनिधि' अथवा 'सुंदरता सुख मूल' के रूप में देखते हैं। सीता मन ही मन राम का वरण कर चुकी हैं, पर उद्विग्न हैं, जिस गौरी को पूजकर आई हैं, उससे प्रार्थना करती हैं कि धनुष का भार कुछ कम कर दो, जिससे राम धनुभंग भी कर सकेंगे और राम का रामत्व भी बना रहेगा। स्नेह और मर्यादा का एक साथ निर्वाह कठिन होता है। प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार' की मधूलिका ने कहानी के अंत में यह कहकर इसे संभव किया कि 'तो मुझे भी प्राणदंड मिले।' सीता पिता के प्रण का स्मरण कर चिंता में हैं : नीकें निरखि नयनि भरि सोभा, पितु पन सुमिरि बहुरि मन छोभा। कहाँ बज्र से भी कठोर धनुष और कहाँ राम का स्यामल किशोर मृदुगात और उद्विग्नता का भाव है : बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा, सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा : शिरीष के कोमल प्रसून से रत्न बेधने का प्रयास।
और तब सीता शिवधनुष से ही प्रार्थना करती हैं : अब मोहि संभु चाप गति तोरी। इस प्रसंग में तुलसी सीता की उद्विग्नतां को संयमित करते हैं, उन्हें मर्यादित करते हैं : गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी, प्रगट न लाज निसा अवलोकी/ लोचन जल रहु लोचन कोना, जैसे परम कृपन कर सोना। सीता को विश्वास है कि जेहि के जेह
188 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन