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________________ का प्रतिपादन करते हैं, जिनमें प्रमुख हैं - करुणानिधान भक्तवत्सल । एक पद है, मानव जीवन की सार्थकता को लेकर, जिसमें विकारों की चर्चा है, और राम के माध्यम से मुक्ति का उपाय (विनयपत्रिका, पद 201 ) : लाभ कहा मानुष-तनु पाए काय बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराए जो सुख सुरपुर-नरक गेह बन आवत बिनहिं बुलाए तेहि सुख कहँ बहुजतन करत मन, समुझत नहिं समुझाए पर दारा, पर द्रोह, मोहबस किए मूढ़ मन भाए गरभबास दुखरासि जातना तीव्र बिपति बिसराए भय-निद्रा, मैथुन - अहार, सबके समान जग जाए सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे, हरि मद अभिमान गवाए गई न निज-पर- बुद्धि शुद्ध हवै रहे न राम-लय लाए तुलसिदास यह अवसर बीते, का पुनि के पछिताए । तुलसी की राममयता स्वतंत्र विवेचन की माँग करती है क्योंकि वे 'गुणसमुच्चय' के रूप में प्रतिष्ठित हैं, शुभ कर्म की भूमि पर संचरित और उन्हें पाकर सब आश्वस्त हैं। मनुष्य रूप में जीवन-धार में प्रवाहित राम के साथ पूरा समाज है जो उनसे रागात्मकता का अनुभव करता है। अयोध्या उनके जन्म में उत्सवनिमग्न है और कवितावली का आरंभ राम के बाल-वर्णन से होता है : अवलौकि हौं सोच विमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक से । वह शोकहारी बालक है और उसके रूप पर जो मोहित न हो, उसका जीवन ही व्यर्थ है जैसे । सही विवेकी समर्पण का एक सुख है, इसे वही जानता है जो समर्पित होता है। राम के हर क्रिया-कलाप में समाज सम्मिलित है, जिससे उनके व्यक्तित्व को सामाजिकता मिलती है, जो सबकी सहज स्वीकृति से निर्मित होती है। अयोध्या तो उनका अपना स्थान है, यहाँ की प्रसन्नता स्वाभाविक है, पर जनकपुर के नर-नारी काम-धाम छोड़कर देखने निकल पड़ते हैं । सखियाँ पारस्परिक बातचीत से अपने भाव प्रकट करती हैं और धनुषयज्ञ के पूर्व ही सीता के पति रूप में उनका चयन करती हैं। इस प्रसंग को तुलसी ने रामचरितमानस में विस्तार दिया है जहाँ सराहना, असमंजस, रागभाव सब एक साथ हैं : बरनत छवि जहँ तहँ सब लोगू, अवसि देखिअहिं देखन जोगू। इसी क्रम में राम-सीता का पूर्वानुराग है, जिसे तुलसी ने मार्मिक संवेदनशीलता से रचा है : चितवति चकित चहूँ दिसि सीता । कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता जहँ बिलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बरिस कमल सित नी लता ओट तब सखिन्ह लखाए । स्यामल गौर किसोर सुहाए देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने थके नयन रघुपति छवि देखें । पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 185
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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