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________________ से कठोर और कुसुम से कोमल' एक साथ हैं-सामाजिक स्तर पर अन्याय-अत्याचार का विरोध करते और मानवीय धरातल पर परम कृपालु । 'विनयपत्रिका' में तुलसी ने राम के लिए जिन विरुदों का सर्वाधिक उपयोग किया है, वे कृपानिधान के समानार्थी हैं और राम की शक्ति-सामर्थ्य के साथ उनकी करुणा में आस्था उन्हें प्रभावी बनाती है। इस दृष्टि से उनका जनतांत्रिक रूप है और वे सहयोगियों की सराहना करते हैं। तुलसी ने अयोध्याकांड में राम-भरत-संवाद के प्रसंग में दोनों पर तुलनात्मक दृष्टि डालते हुए एक चौपाई में कहा है कि भरत प्रेम-ममता की सीमा हैं और राम समता की : भरतु अवधि सनेह समता की, जद्यपि रामु सीम समता की। भरत भाव की जिस गहराई से राम को संबोधित करते हैं, उसका उत्तर दे पाना सरल नहीं। तुलसी स्वयं अभिव्यक्ति की सीमा स्वीकारते हुए कहते हैं : आप छोटि महिमा बड़ि जानी, कबिकुल कानि मानि सकुचानी। भरत की महिमा का वर्णन लगभग असंभव है और राम सराहना करते हुए उन्हें धर्म की धुरी धारण करने वाला कहते हैं जिनमें कर्म, वचन, मन की निर्मलता अप्रतिम है : तात भरत तुम्ह धरम धुरीना, लोक बेद बिद प्रेम प्रवीना। यह है भाई के प्रेम की स्वीकृति, पर राम के समक्ष कर्तव्यबोध निरंतर उपस्थित है। कहते हैं कि प्रजा का पालन निष्ठा से करो : करहु प्रजा परिवारु सुखारी। संबंधों का निर्वाह राम सामाजिक दृष्टि के साथ करते हैं, सहज कृतज्ञता भाव से दूसरों का ऋण स्वीकारते हैं, प्रतिदान भाव के साथ। निषाद जैसे सामान्य वर्ग के पात्र से कहते हैं : तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। हनुमान के विवेक में उनकी आस्था है और कठिन से कठिन कार्य के लिए, वे उनका चुनाव करते हैं। चित्रों में हनुमान निरंतर राम के साथ हैं, वे उन्हें पुत्र कहकर संबोधित करते हैं : सुन सुत तोहि उरन मैं नाहीं, देखउँ करि बिचारि मन माँहीं और तुलसी निषाद को 'रामसखा' कहकर गौरव देते हैं। राम जानते हैं कि उन्होंने युद्ध केवल अपने चमत्कार से नहीं जीता था, इसमें वानरी सेना का योगदान है। अयोध्या लौटने पर गुरु वशिष्ठ से उनकी सराहना करते हैं कि ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं : ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे, भए समर सागर कहं बेरे/मम हित लागि जनम इन्ह हारे, भरतहुँ तैं मोहि अधिक पियारे । यह है महापुरुष का प्रतिदान-भाव और दूसरों के महत्त्व का स्वीकार। तुलसी ने राम की राममयता गढ़ने में स्वयं को भाववाद से मुक्त रखने का प्रयत्न किया है। वे जानते हैं कि काव्य-नायक को प्रमाणित करना है, कर्म-आचरण के सौंदर्य से। 'विनयपत्रिका' में तो जैसे तुलसी की परीक्षा ही है कि विनय-भक्ति भाव से सीधे ही राम को संबोधित किया जा रहा है, फिर इसमें राम की छवि कैसे उभारी जाय। पर इस कार्य को तुलसी ने निष्पादित करने के लिए सर्वप्रथम भाव, विचार को संयोजित किया। स्वयं को समय के प्रतिनिधि रूप में रखा, जो कलिकाल से दुखी है, कष्ट में है। संकल्प कवि का साथी है : अब लौं नसानी, अब न नसैहौं। राम को कलिकाल के उद्धारक रूप में प्रस्तुत करते हुए, तुलसी उनमें कर्म-भरे गुणों 184 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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