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________________ अधिक सनेहं देह भै भोरी। सरद ससिहि जन चितव चकोरी लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी धनुषभंग के पूर्व ही सीता मन ही मन राम का वरण कर लेती हैं, पार्वती से प्रार्थना करती हैं : मोर मनोरथ जानहुँ नीके और उन्हें वर भी मिल जाता है। साधारण प्रसंग होता तो राम-सीता दोनों की मर्यादा खंडित होती, पर तुलसी जानते हैं कि जिन्हें उन्होंने पिता-माता रूप में देखा है, उनके मानुषीकरण के बिना, व्यापक स्वीकृति का अध्याय अधूरा रह जाएगा। इस प्रसंग को थोड़ा आगे चलकर देखें, धनुषयज्ञ के समय : रामहि चितव भायं जेहि सीया, सो सनेहु सुखु नहिं कमनीया। सीता जिस राग-भाव से राम को देख रही हैं, वह सुख वर्णनातीत है। सीता भी साधारण नहीं, अद्वितीय हैं : सिय सोभा नहिं जाइ बखानी, जगदंबिका रूप गुन खानी। राम के प्रति सीता का राग-भाव ऐसा कि वे गणनायक से प्रार्थना करती हैं कि 'करहु चाप गुरुता अति थोरी।' इस प्रकार राम के समीपी पात्र उनसे बँध जाते हैं, उन्हें चेतना से स्वीकारते हैं और इस स्वीकृति को तुलसी ने प्रेम भाव से आरंभ कर श्रद्धा-भक्ति में पर्यवसित किया। उत्तरकांड में राम स्वयं संत-प्रवृत्ति का वर्णन करते हैं और उन्हें असंतों से अलगाते हैं। असंत हर समय में होंगे ही, पर कलियुग के पतित समाज में उनकी संख्या बढ़ जाती है : काम, क्रोध, मद, लोभ-परायन, निर्दय कपटी कुटिल मलायन । वे मूर्तिमान असत्य हैं : झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना। राम मानवधर्म की स्थापना करते हैं, कहते हैं दूसरे के उपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं है : परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। नरसी मेहता ने वैष्णवता को परिभाषित करते हुए कहा : 'वैष्णवजन तें तेने कहिए, जे पीर पराई जानै रे। जो दूसरों की पीड़ा में सहभागी है, वह सच्चा वैष्णव है। तुलसी ने अपने लोकवादी-मानववादी समाजदर्शन के केंद्र में काव्य-नायक राम को रखा और उनमें बुद्धि-विवेक, सत्कर्म, मर्यादित आचरण, अयाचित स्नेह, उदार करुणा आदि मानवीय गुणों का प्रतिपादन किया। पर उनसे संबद्ध पात्रों को प्रतीकन दिया और सबको रामकथा में सार्थकता दी। लक्ष्मण का त्याग सराहनीय है और वे राम के साथ वन को प्रस्थान करते हैं, जैसे हरिण की मुक्ति : बागुर विषम तोराइ, मनुहँ भाग मृगु भाग बस। उनका स्वाभिमान देखने योग्य है, और वे धुनषयज्ञ के प्रसंग में दो बार रघुकुल की यशस्वी परंपरा का उल्लेख करते हैं, दशरथ से और फिर परशुराम से। सेवा की इसी श्रेणी में कई और हैं, अंगद आदि, पर सर्वोपरि हैं विवेकसंपन्न हनुमान, जिनके अभाव में रामकथा ही रुक-ठहर जाती। इसीलिए वे सदैव राम के साथ हैं और उपास्य राम तथा भक्त के मध्य सही सेतु भी हैं। भरत तुलसी के समाजदर्शन का महत्त्वपूर्ण आधार हैं, इस अर्थ में कि कवि ने उन्हें प्रतीकत्व दिया है। उनके संदर्भ में 'भायप भगति' की बात की जाती है-भक्ति के 186 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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