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________________ मान आदि प्रसंगों में आकुलता के संकेत मिलते हैं, पर प्रेम की पूर्ण परीक्षा होती है, कृष्ण के मथुरा चले जाने पर। भ्रमरगीत प्रसंग में राधा का प्रेम परीक्षित होकर अपनी पूर्णता पर पहुँचता है और इस माध्यम से सूर मध्यकालीन देहवाद का सजग अतिक्रमण करते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में : 'संयोग की रस-वर्षा के समय जिस तरल प्रेम की नदी बह रही थी, वियोग की आँच से वही प्रेम सांद्र-गाढ़ हो उठा।' कृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा और गोपिकाओं की पीड़ा आरंभ में ही वर्णित है : नाथ अनाथनि की सुधि लीजै, गोपी, ग्वाल, माइ, गोसुत सब, दीन मलीन दिनहिं दिन छीजै, नैननि जलधारा बाढ़ी अति, बूड़त ब्रज किन कर गहि लीजै (पद 3808)। दशम स्कंध में उद्धव-ब्रज-आगमन प्रसंग के आरंभ में ही एक पद है, जिसमें राधा का उल्लेख है : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार, कहाँ सुखद बंसी बट जमुना, यह मन सदा बिचार, कहाँ बन धाम कहाँ राधा संग, कहाँ संग ब्रज बाम (4034)। उद्धव के आगमन की प्रथम सूचना गोपी राधा को देती है (4076)। गोपिकाएँ अपनी व्यथा-कथा कह देती हैं, निर्गुण के प्रति आक्रामक भी हैं। गोकुल में बात फैल जाती है : कोउ माई मधुबन तैं आयो (4130)। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गोपिकाओं की वचन-वक्रता का उल्लेख किया है (भ्रमरगीत-सार, पृ. 71)। मुखर गोपिकाओं की तुलना में राधा मौन है, जैसे वे ही उसकी पीड़ा का भी प्रतिनिधित्व कर रही हैं : सुनहु स्याम सुजान, तिय गज गामिनी की पीर (4727), उमँगि चले दोउ नैन बिसाल (4729), नाहीं कछु सुधि रही हिए (4736) आदि। गोपिकाएँ बहिया का दृश्य प्रस्तुत करते हुए कहती हैं : तुम्हारे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैनन नदी बढ़ी, लीने जात निमेष कूल दोउ, एते मान चढ़ी (4731) । वियोग-डूबी राधा का विषाद-चित्र (4691) : अति मलीन वृषभानु-कुमारी हरि सम-जल भींज्यौ उर-अंचल तिहिं लालच न धुवावति सारी अध मुख रहति अनत नहिं चितवति, ज्यौं गथ हारे थकित जुवारी छूढे चिकुर बदन कुम्हिलाने, ज्यौं नलिनी हिमकर की मारी हरि संदेस सुनि सहज मृतक भइ, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी सूरदास कैसैं करि जीवें, ब्रज बनिता बिन स्याम दुखारी। गोपिकाएँ ऊधो से कृष्ण को संदेश भेजते हुए प्रश्न करती हैं : जसुमति-जननी, प्रिया राधिका देखे औरहुँ देस ? राधा अप्रतिम प्रेमिका है, सर्वांग समर्पित । इसी पद में (4696) राधा की भाव-विह्वलता का चित्र है, स्मृति के माध्यम से : मुख मृदु छबि मुरली रव पूरत, गोरज करबुर केस नट-नायक गति बिकट लटक तब, बन तें कियो प्रवेश अति आतुर अकुलाय धाइ पिय, पोंछत नयन कुसेस कुम्हिलानौ मुख पद्म परस करि देखत छबिहिं बिसेस। 150 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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