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________________ ऊधौ कई पदों में राधा की वियोग-व्यथा कृष्ण से कहते हैं (4722-4736), जिनमें वह मार्मिक पद भी : तुम्हारे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैननि नदी बढ़ी (4731)। कुरुक्षेत्र में रुक्मिणी की जिज्ञासा है : हरि सौं बूझति रुक्मिनि इनमें को वृषभानु किसोरी, बारक हमें दिखावहु अपने बालापन की जोरी (4903)। राधा-रुक्मिणी का मिलन सूर की अद्वितीय सृष्टि है, जहाँ वे मध्यकालीन सामंती समाज की बहपत्नी प्रथा से जन्मे असूया भाव को तिलांजलि देते हैं : रुक्मिनि राधा ऐसें भेंटी, जैसे बहुत दिनन की बिछुरी, एक बाप की बेटी (पद 4909)। राधा अपने मौन में ही महान् है और कृष्ण के प्रति उसका समर्पित राग भाव प्रपत्ति का सर्वोच्च धरातल निर्मित करता है। भागवत में राधा की अनुपस्थिति के बावजूद, महाकवि सूरदास ऐसी अप्रतिम कृष्णप्रिया रच सके, यह उनकी सर्जन-क्षमता का असंदिग्ध प्रमाण है। अपने रूप-गुण में वह अद्वितीय है, और निश्छल समर्पण भाव में परवर्ती भक्ति-दर्शन और रचनाशीलता के लिए प्रेरणा बनती है। कृष्ण के साथ ही राधा का स्मरण किया जाता है और वह मध्यकालीन कला-संसार में अभिव्यक्ति पाती है : लोकगीत, संगीत, चित्र, स्थापत्य, मूर्ति, नृत्य आदि में। राधा के माध्यम से सूर का समाजदर्शन एक ऐसी नारी-प्रतिमा गढ़ता है जो लोक में संचरित होकर भी, अपने समग्र व्यक्तित्व में इतनी उदात्त है कि देवी रूप प्राप्त करती है। सूर की राधा मध्यकालीन देहवाद का निषेध है, जहाँ नारी केवल शरीर अथवा श्रृंगार बनकर रह गई थी। वह कवि सूर का सराहनीय विकल्प है, रचना-स्तर पर जिसे सुधारस, अमृत कहा गया। वह है : जगनायक, जगदीस-पियारी, जगत-जननि जगरानी, नित विहार गोपाल लाल संग, वृन्दावन रजधानी (1673)। कृष्णकाव्य में कृष्ण के व्यक्तित्व को केंद्रीयता है और राधा चिरंतन प्रिया है। पर कृष्णलीला की पूर्णता के लिए गोपिकाएँ भी अनिवार्य हैं, जिन्हें जीव-रूप कहा गया और आध्यात्मिक संकेत की प्रतिष्ठा की गई। भागवतकार भी इस दिशा में सावधान है कि गोपिकाएँ लोकसंपृक्ति के बावजूद समर्पण की उदात्त भूमि का संकेत करती रहें और स्थान-स्थान पर यह प्रयत्न है। दशम् स्कन्ध में रास-प्रसंग में भी कृष्ण के लिए योगेश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है। अध्याय बत्तीस में प्रेम का जो विवेचन है, उसके समापन में कृष्ण स्वयं गोपिकाओं के प्रेम की सराहना करते हैं। सूरसागर की कृष्णकथा में गोपिकाएँ रागभाव का मुख्य आधार हैं जिसमें सरदास एक ओर लोकसंवेदन की निर्बंध अभिव्यक्ति करते हैं, दूसरी ओर उसी के माध्यम से उच्चतर उदात्त भाव का प्रतिपादन करना चाहते हैं, जिसे भक्ति कहा गया। यह कार्य यदि किसी अतिरिक्त बाह्यारोपण से होता तो काव्य के सहज प्रवाह में बाधा उपस्थित होती, पर सूर भावावेग के बावजूद जिस भाव-संतुलन का निर्वाह, कला के स्तर पर करते हैं, वह उनकी प्रतिभा का प्रमाण है। कई बार गोपियों का प्रेम व्यापार और उनके उद्गार उन्मुक्त प्रतीत होते हैं, इस सीमा तक कि मर्यादा टूटती दिखाई देती सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 151
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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