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________________ को है और संगी-साथियों को भी । यशोदा प्रसन्न है कि राधा मुग्ध भाव से कृष्ण को निहारती है : रीतौ माठ बिलोवई, चित जहाँ कन्हाई ( 1333 ) । गो - दोहन के माध्यम 1 से राधा-कृष्ण के प्रेम का पल्लवन सूर की सामाजिक चेतना की उपज है : हरि सौं धेनुदुहावति प्यारी (1351), दुहि दीन्हीं राधा की गाइ ( 1355 ) । इस प्रसंग के अनंतर राधा की स्थिति यह है कि चलन चहति पग चलै न घर कौं ( 1356 ) । सूर ने व्यंजित किया है ( 1354) : धेनु दुहत अतिहीं रति बाढ़ी एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी मोहन कर तैं धार चलति, परि मोहनि-मुख अतिहीं छवि गाढ़ी मनु जलधर जलधार वृष्टि - लघु, पुनि पुनि प्रेम चंद पर बाढ़ी सखी संग की निरखतिं यह छवि, भईं व्याकुल मन्मथ की डाढ़ी सूरदास प्रभु के रस - बस सब, भवन काज तैं भई उचाढ़ी राधा-कृष्ण प्रेम के माध्यम से सूर राग-भाव को उसकी चरम उदात्तता में व्यक्त करते हैं, पर पूरी लोक छवि के साथ। यहाँ कोई आरोपित आध्यात्मिकता नहीं है, जिससे लोकसंपृक्ति दुर्बल होती है; प्रेम-व्यापार प्रकृति के खुले मंच पर है, पूरा गोकुल जिसका साक्षी है । राधा - कृष्ण का अन्योन्याश्रित प्रेम जिस भक्ति भावना का संकेत करता है, उसका निहितार्थ यह भी है कि ईश्वर प्रेम का प्रतिदान करना जानते हैं । राधा हरि-अनुराग-भरी है और 'लोक-सकुच - संका नहिं मानति, स्यामहिं रंग ढरी ।' सखियाँ उसे बावली कहती हैं, पर इसे उसकी चिंता नहीं है ( 2518 ) | कृष्ण के प्रति राधा के राग-भाव को वे मान देती हैं : धन्य-धन्य बड़ भागिनि राधा (2477 ) । गोपिकाएँ मुरली से ईर्ष्या करती हैं कि वह कृष्ण को वश में रखती है, पर राधा के भाग्य को सराहती हैं। यहाँ सूरदास स्वीकृति और निषेध से समाजदर्शन का संकेत करते हैं। एक में है, बहुपत्नीप्रथा के सामंती समाज पर परोक्ष टिप्पणी और दूसरे में मूल्य-स्तर पर उससे उबरने का साहस, जिसके लिए उसने कृष्णप्रिया राधा का चयन किया है जो रसिकेश्वर की स्वकीया प्रिया ही नहीं, अपने गुण-धर्म में इतनी उदात्त कि सबकी प्रेरणा बनती है - राधा - भाव के रूप में । लीला - प्रसंग में राधा-कृष्ण मध्य में हैं और वृत्त बनाती गोपिकाएँ चारों ओर । राधा की मान - लीला भी क्षम्य है, जिससे प्रेम और प्रगाढ़ होता है । इस प्रसंग को सूर ने विस्तार दिया है, संभव है जिस पर मध्यकालीन दबाव हों । पर कृष्ण स्वीकारते हैं कि : लोक चतुर्दस नीरस लागत, तू रस-रासि-रची (3066)। रास प्रसंग में राधिका की विशिष्ट स्थिति है : दुलहिनि दूलह स्यामा स्याम ( 1762) - दाम्पत्य की युगल छवि । सूर राधा के माध्यम से प्रेम को जिस सर्वोच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, उससे भक्तिभाव का निष्पादन होता है । इसे पुरातन, नित्य प्रेम कहा गया है और इसके परिपाक के लिए कृष्णप्रिया के प्रेम की परीक्षा अनिवार्य थी । अंतर्धान, सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 149
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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