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________________ पक्ष सर्वाधिक मुखर होकर आया है, वह है उसका निश्छल समर्पण भाव। उसके माध्यम से जैसे सूर ब्रज-युवती की सहज-सरल अद्वितीय प्रतिमा अंकित करना चाहते हैं। उसकी तुलना में प्रेमी कृष्ण चतुर सुजान हैं : 'सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी' (1291)। प्रायः राधिका के सौंदर्य पर ध्यान इतना केंद्रित हो जाता है कि यह तथ्य भुला दिया जाता है कि शरीर आकर्षण का प्रस्थान हो सकता है, पर विकास और संवर्धन के लिए रागात्मक भाव की अपेक्षा होती है। राधा का रूपचित्र निर्मित करते हुए सूर परंपरित उपमानों का भी आश्रय लेते हैं, पर अंत में कहते हैं : 'भुवन चतुर्दस की सुंदरता, राधे मुखहिं रचाई' । इसी विस्तृत सौंदर्य-वर्णन में राधा उच्चतर आशय से संबद्ध की गई है : रूप-रासि, सुख-रासि राधिके, सील महा गुनरासी (पद 1673) अथवा राधा निर्मल चंद्रिका है, वह कृष्ण को प्रिय है, यही उसके सौंदर्य की स्वीकृति है : तुम सी तुमहीं राधा, स्यामहिं मन-भाइ (1694)। राधा के रूप-निर्माण में सूर की सौंदर्य-दृष्टि इस दिशा में सजग कि वह साधारण सुंदरी नहीं, कृष्णप्रिया है, उन जैसे रसिकेश्वर-रसिक-शिरोमणि को आकृष्ट करा सकने की क्षमता उस व्यक्तित्व में है : पद ‘राधे तेरौ बदन बिराजत नीको' से आरंभ होता है, और समापन-पंक्ति है : सूरदास, प्रभु बिबिधि भाँति करि, मन रिझ्यो हरि पी कौ (2320)। सूर ने राधा-कृष्ण के घनिष्ठ मिलन-चित्र बनाए हैं, उद्दाम शृंगार के, पर प्रेम-भाव की प्रगाढ़ता के लिए नाट्यकौशल का उपयोग भी किया है, जिसमें यशोदा, गोपिकाएँ सब सम्मिलित हैं, यहाँ तक कि राधा की माँ भी। सूर इस अद्वितीय प्रेम को ऐकान्तिक भूमि से निकालकर, पारिवारिक-सामाजिक भूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं, जो उनकी सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना का प्रमाण है। यशोदा राधा से पूछती है : बेटी कौन महर की है तू, को तेरी महतारी/धन्य कोख जिहिं तोकों राख्यौ, धनि घरि जिहिं अवतारी (1321)। यशोदा स्वयं उसे सँवारती है (1322) और यह है सौंदर्य की सामाजिक स्वीकृति। राधा-कृष्ण का प्रेम किशोर-वय का प्रेम है-निर्मल, पवित्र । प्रथम दर्शन में ही प्रेम हो जाता है : सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी (1290)। प्रेम में नेत्रों की प्रमुख भूमिका को बार-बार रेखांकित किया गया है : नैन-नैन कीन्हीं सब बातें (1292) और राधा के नेत्रों की विशालता है : अति बिसाल चंचल अनियारे, हरि-हाथनि न समाए (1293)। शब्दों से कम कहा गया है, नेत्रों से अधिक । विचारणीय यह कि सूरदास की राधा कम बोलती है, उसका समर्पित मौन-भाव है, यहाँ तक कि वियोगक्षणों में भी : तुम्हारे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैननि नदी बढ़ी (पद 4731)। सूर का कौशल यह कि उन्होंने राधा-कृष्ण के प्रेम को खुली भूमि पर प्रतिष्ठित करते हुए, ब्रजजीवन, ग्वाल-संस्कृति से उसे संबद्ध किया है। वैयक्तिक सीमाओं को अतिक्रांत करना कवि के समाजदर्शन का उल्लेखनीय पक्ष है, जहाँ संबंधों को सामाजिक स्वीकृति मिलती है। प्रेम का विकास बाल-क्रीड़ा, गो-दोहन के साथ होता है, जिसकी जानकारी 148 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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