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________________ व्यक्तित्व का नया रूपान्तरण होता है : आजु हरि ऐसौ रास रच्यौ, सवन सुन्यौ न, कहूँ अवलोक्यौ, यह सुख अब लौं कहाँ संच्यौ। इसमें सूर ने अहंकार के नष्ट होने का संकेत किया है, जिससे भक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है (1757)। रास के माध्यम से सूर कृष्ण को ऐसी लोकभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं कि उनका मानुष रूप अकुंठित भाव से अभिव्यक्ति पाता है। रसिकता के दृश्य बनाते हुए वे घनिष्ठतम मिलन-चित्रों का उपयोग करते हैं, पर सावधानी से इस तथ्य का संकेत करते चलते हैं कि कृष्ण का प्रभाव प्रकृति में भी देखा जा सकता है। प्रसंगों के बीच एक उदात्त भाव की ओर बार-बार लौटना सूर की सजगता का बोध कराता है और यहाँ कवि तथा भक्त का संयोजन विचारणीय है। शृंगार के स्थलों में कविता खुली भूमि पर है, पर सूर को कृष्ण के विशिष्ट, निर्लिप्त व्यक्तित्व का ध्यान भी है, इसलिए वे पनघट-लीला और दान-लीला में भी कृष्ण के वैशिष्ट्य का संकेत करते हैं : हरि त्रिलोकपति पूरनकामी, घट-घट व्यापक अंतरजामी (2017) अथवा भक्तनि के सुखदायक स्याम (2078)। राधा सूर की विशिष्ट सृष्टि है, कवि की सर्जनात्मक कल्पना की सर्वोत्तम निर्मिति। भागवत में राधा की अनुपस्थिति ने विकास-क्रम की खोज में कठिनाई उपस्थित की, पर जयदेव, विद्यापति, चंडीदास, सूर में राधा केंद्रीय चरित्र के रूप में विद्यमान है। परवर्ती पद्मपुराण, देवी भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा को स्थान मिला और ब्रह्मवैवर्त में विस्तार भी। सूर की राधा का प्रमुख प्रस्थान यह कि वह कृष्णप्रिया है, नित्यप्रिया, परमस्वकीया। वृषभानु की बेटी, वह सौन्दर्य का अक्षय कोष है-रूपराशि : चंपक कनक कलवेर की दुति (1815)। सूर ने राधा का चित्र बनाते हुए अपनी जिस जाग्रत सौंदर्य दृष्टि का परिचय दिया है, उसमें आग्रह हृदय की शुचिता पर है-'परम निर्मल नारि' (2461)। ऐसा प्रतीत होता है कि राधा को सर्जित करने में सूर अपनी सौंदर्य चेतना के साथ तो उपस्थित हैं ही, वे उसमें जिस प्रगाढ़ प्रेमभाव का प्रवेश कराते हैं, वह इतनी उदात्त भूमि पर संचरित है कि भक्ति में पर्यवसित होता है। इसलिए यह प्रश्न ही व्यर्थ है कि राधा स्वकीया है अथवा परकीया। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी राधा-कृष्ण-संबंध को उच्चतम प्रेमी-प्रेमिका संबंध के रूप में देखते हैं जो सामाजीकृत होकर भक्ति तक पहँचता है-प्रेमी कृष्ण की आराध्य रूप में भी स्वीकृति (महाकवि सूरदास : पृ. 152)। सूर की राधा अनिंद्य सौंदर्य की स्वामिनी है और अप्रतिम प्रेम-प्रतिमा। इसलिए गोपिकाओं के लिए गोपी-भाव का प्रयोग किया गया, पर राधा के लिए परम गोपी-भाव। वह नित्यप्रिया है, चिरंतन कृष्णप्रिया और सूर ने उसके व्यक्तित्व को इस सीमा तक विकसित किया कि वह व्यक्ति-संज्ञा से आगे जाकर, विशेषण-प्रतीक-बिंब बन गई। प्रेम से भक्ति का यह ऊर्ध्वमुखी प्रयाण भक्तिकाव्य में उल्लेखनीय है और यहाँ सूर पूर्ववर्ती कवियों से कहीं अधिक उदात्त भूमि पर स्थित हैं। राधा के आरंभिक सौंदर्य-चित्रों से लेकर अंत तक उसके रूप वर्णन में जो सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 147
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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