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________________ मुरली मधुर बजाई स्याम मन हरि लियौ भवन नहिं भावै, व्याकुल ब्रज की बाम भोजन, भूषन की सुधि नाही, तनु की नहीं सम्हार गृह गुरु-लाज सूत सौं तोरयौ, डरी नहीं व्यवहार करत सिंगार बिबस भई सुंदरि, अंगनि गई भुलाइ सूर-स्याम बन बेनु बजायत, चित हित-रास समाइ सूर ने रास के प्रसंग का उपयोग गोपिकाओं के सामाजीकृत व्यक्तित्व का चित्रण करने में इस अर्थ में किया है कि प्रेम सीमाओं को अतिक्रमित करने का साहस रखता है। परिवार-कुल का निषेध कर गोपिकाएँ कृष्ण के पास पहुँचती हैं और कृष्ण उन्हें घर लौट जाने का परामर्श भी देते हैं, पर गोपिकाएँ अपने स्नेह में अडिग हैं। वे कृष्ण को 'ब्रज का परम हितैषी' कहती हैं (1639), उन्हें कृपानिधान मानती हैं (1644)। रास के प्रसंग में घनिष्ठ मिलन-चित्र आए हैं, 'काम' शब्द का प्रयोग भी हुआ है, पर सूर इस दिशा में सावधान प्रतीत होते हैं कि पूरा प्रकरण साधारण शृंगार मात्र बनकर न रह जाय। इसलिए वे प्रेमभाव और भक्तिभाव में संयोजन का सजग प्रयत्न करते हैं और देवता भी आकाश से इसे देखते हैं-अद्भुत राच्यौ रास (1662)। यहाँ तक कि मुरली-धुनि बैकुंठ गई, नारायन-कमला-सुनि दंपति, अति रुचि हृदय भई (1682)। सूर ने राधा का प्रवेश भी कराया है : रासमंडल-मध्य स्याम राधा (1670), जो परम गोपी भाव है। रास का संपूर्ण प्रसंग रागात्मकता की चरम परिणति है, जिसमें मुरली-ध्वनि की उपस्थिति उल्लेखनीय है, जिसका व्यापक भाव है (पद 1686) : मुरली सुनत अचल चले थके चर, जल झरत पाहन, विफल बृच्छ फले पय सवत गोधननि थन तें, प्रेम पुलकित गात झुरे छम अंकुरित पल्लव, विटप चंचल पात सुनत खग-मृग मौन साध्यौ, चित्र की अनुहारि धरनि उमंगि न माति उर मैं, जती, जोग बिसारि ग्वाल गृह-गृह सबै सोवत, उहैं सहज सुभाइ सूर-प्रभु, रस-रास के हित, सुखद रैनि बढ़ाइ। रासलीला के प्रसंग में राधाकृष्ण का गंधर्व-विवाह वर्णनात्मक रीति से आया है। पर ‘अंतर्धान' प्रसंग में राधा वियोग-डूबी प्रिया है : कनक बेलि सी क्यों मुरझानी, क्यों बन मांझ अकेली है (1726), अथवा रुदन करति वृषभानु-कुमारी (1730)। रास की परिणति महारास में होती है जो राग-भाव का चरमोत्कर्ष है, जहाँ गोपिकाओं का अहंकार विलयित होता है, वे संपूर्ण कृष्णार्पिता होती हैं-प्रवृत्ति, शरणागति भाव से। इसे सूर ने विशिष्ट रास कहा है : मोहन रच्यौ अद्भुत रास (1751), जिससे 146 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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