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________________ नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नीर सरीर हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर पदमावती जायसी की अद्वितीय सृष्टि है, कवि की कल्पित समन्वित रूप-छवि। लगता है जैसे जायसी अपने संपूर्ण राग भाव को पद्मावती में संयोजित करते हैं। कोई बाध्यता नहीं है कि पद्मावती को अलौकिक ही माना जाय, वह अपनी छवि में ही लोकोत्तरता का बोध कराती है और इसे जायसी की सर्जनात्मक कल्पना की महान् सिद्धि कहना होगा। हम स्वीकारते हैं कि रूप-वर्णन के प्रसंग में पारंपरिक उपमानों का उपयोग हुआ है, पर जायसी इसे पार भी करते हैं। वे बार-बार इसके लिए 'रूप' शब्द का प्रयोग करते हैं-गुण-संपन्न विशिष्ट सौंदर्य : बिनु सेंदुर अस जानउ दीया, उजियर पंथ, रैनि महं कीआ। यह सौंदर्य आलोक देता है, प्रकाशमान है। पद्मावती सामंती समाज के रनिवास का लगभग विलोम है और उसे प्राप्त करने के लिए रत्नसेन को तप करना पड़ता है। पद्मावती का रूप-वर्णन एक से अधिक बार आया है, यद्यपि इसमें पुनरावृत्ति भी है, जैसे नखशिख खंड और पद्मावती रूप चर्चा खंड में। पहले का कथावाचक है ज्ञानी हीरामन सुग्गा, दूसरे का लोभी राघव चेतन और दोनों की 'दृष्टि' में अंतर है। हीरामन की दृष्टि गुण पर है, राघव चेतन की शरीर पर अधिक । पद्मावती का सौंदर्य जन्म खंड में ही संकेतित है जहाँ जन्म के स्थान पर अवतरण शब्द का प्रयोग है : पद्मावती औतरी : इते रूप भै कन्या, जेहिं सर पूज न कोई धनि सो देस, रूपवंता, जहाँ जन्म अस होइ। जग कोई दीठि न आवे, आछहिं नैन अकास जोगी जती संन्यासी, तप साधहिं तेहि आस। सिंहल द्वीप वर्णन के आरंभ में ही जायसी पद्मावत को 'निरमल दरपन भाँति बिसेखा' कहते हैं। पद्मावती के दिव्य सौंदर्य के बावजूद वे उसे मानुष-भूमि पर रखते हैं। उसमें सहज इच्छा-संसार है और हीरामन से बात करते हुए वह कामदेव के पर्यायवादी शब्दों तक का उपयोग करती है : देह-देह हम्ह लाग अनंगा। संयोग के क्षणों में भी उसका यह नारी-भाव सजग है, पातिव्रत धर्म के साथ : नेवछावरि अब सारौं तन मन जोबन जीउ (पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड)। हीरामन इस विशिष्ट सौंदर्य के लिए योग्य वर की तलाश में निकल पड़ता है, पर यह कार्य सरल नहीं। कई हाथों होकर जब वह रत्नसेन के पास पहुँचता है, तो पद्मावती के रूप-बखान (नखशिख खंड) के पूर्व, जायसी ने नागमती-सुआ संवाद खंड की नियोजना की है। नागमती रूपगर्विता है, दर्पण में अपना मुख देखकर हीरामन से प्रश्न करती है : बोलहु सुआ पियारे नाहाँ, मोरे रूप कोइ जग माहाँ । इतना ही नहीं, वह अपना प्रश्न दोहे में दुहराती है : है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान। बुद्धिमान हीरा सर्वप्रथम पद्मावती 120 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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