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________________ के 'रूप' का स्मरण करता है, फिर रानी नागमती की ओर देखता है। जायसी ने यहाँ सौंदर्य की दो इकाइयों का संकेत किया है-मात्र शरीर और दूसरी रूप-गुण-समन्वित : सुमिरि रूप पदमावति केरा। हंसा सुआ, रानी मुख हेरा जेहि सरवर महँ हंस न आवा। बगुला तेहि सर हंस कहावा दई कीन्ह अस जगत अनूपा। एक एक तें आगरि रूपा कै मन गरब न छाजा काहू। चाँद घटा औ लागेउ राहू लोनि बिलोनि तहाँ को कहै। लोनी सोइ कंत जेहि चहै का पूछह सिंघल कै नारी। दिनहिं न पूजै निसि अंधियारी पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया। जहाँ माथ का बरनौं पाया यहाँ कुछ तथ्य जायसी की सौंदर्य-दृष्टि की समझ के लिए विचारणीय हैं। पहले पद्मावती के रूप का सादर स्मरण है, पर नागमती का मुख देखकर व्यंग्य-भरी हँसी कि दोनों में तुलना ही क्या ? और तीखा व्यंग्य कि जिस सरोवर में हंस नहीं आते वहाँ कमबख्त बगुले ही हंस कहे जाते हैं। एक नीर-क्षीर विवेकी, मुक्ता ग्रहण करने वाला हंस, दूसरा पाखंड का प्रतीक बगुला। संसार में सौंदर्य अनेक हैं, एक से एक बढ़कर। यों भी अहंकार न करना चाहिए, वह पतन की ओर ले जाता है। पदमावती अविवाहिता है और नागमती परिणीता : परिणीता के सौंदर्य का प्रमाणपत्र उसके पति का प्रेम है। जहाँ तक सिंहल द्वीप की नारियों का प्रश्न है, तो दिवस और अँधियारी रात्रि की क्या तुलना। वे प्रसूनगंधा नारियाँ हैं, अपने व्यक्तित्व में सुवासित। दूसरों से तुलना क्या ? कहाँ मस्तक कहाँ चरण। सौंदर्य के प्रति यह तुलनात्मक दृष्टि सामंती देहवाद और उसके विलोम रूप में व्यंजित है, कवि के उक्ति-कौशल के साथ। हीरामन सुग्गा 'राजा-सुआ-संवाद खंड' में पद्मावती का आरंभिक रूप-संकेत देता है कि 'पदुम-गंध ससि विधि औतारी'-सौंदर्य की अवतार : ससि-मुख अंग मलयगिरि रानी, कनक सुगंध दुआदस बानी-परम शुद्ध स्वर्ण ? इसका विस्तार नख-शिख-वर्णन में है, जहाँ परंपरा का निर्वाह है और उपमाएँ भी परिचित हैं। पर इसके माध्यम से कवि जिस अपरूप रूप का बोध कराना चाहता है, वह विशिष्ट है। पद्मावती अद्वितीय है और आरंभ ही हीरामन इस प्रकार करता है : का सिंगार ओहि बरनौं राजा, ओहिक सिंगार, ओही पै छाजा। शीश के कस्तूरी केश से लेकर कँवल-चरन तक । कई स्थलों पर शृंगार का खुला वर्णन भी है, पर कवि अपने महत् आशय के विषय में सजग है कि पद्मावती में नारी-सौंदर्य है, पर है वह विशिष्ट रूप। इसलिए संकेत-ध्वनि सामान्य नहीं है : बेनी छोरि झार जौं बारा, सरग पतार होइ अँधियारा (बेणी); बिनु सेंदुर अस जानउ दीआ, उजियर पंथ रैनि मह कीया अथवा सुरज-किरिन जनु गगन बिसेखी, जमुना मांह सुरसती देखी (मांग); कहै लिलार दुइज मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 12.1
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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