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लाता है और पद्मावती को पाने का यह आरंभिक ईमानदार प्रस्थान है, जबकि अलाउद्दीन उसे किसी भी प्रकार पाना चाहता है-छल-बल से ही सही। दोनों दो पथक जीवन-दृष्टियों के प्रतीक हैं-सच्चा प्रेम और सामंती देहवाद । जोगी खंड में सब राजा को समझाते हैं, पर रत्नसेन प्रेम-मार्ग पर अडिग है। मंडपगमन खंड की चौपाई है : 'मानुष पेम भएउ बैकुंठी, नाहिं त काह छार भर मूठी।' रत्नसेन तप-त्याग से अपने अभीप्सित लक्ष्य तक पहुँचता है-पद्मावती की प्राप्ति।
सौंदर्य-दृष्टि के लिए जायसी को दो सीमांतों से जूझना है-एक ओर सामंती समाज है जहाँ देह ही सब कुछ है और विलास ही काम्य है। उदारपंथी संवेदन-संपन्न कवि को इसका एहसास है कि यह नारी जाति का अनादर है, इसलिए वह इसका दूसरा पक्ष प्रस्तुत करता है-दिव्य और शोभन, जहाँ लौकिक से आध्यात्मिकता के संकेत भी मिलते हैं। जायसी की उदात्त प्रेम-सौंदर्य-दृष्टि सामंती समाज के देहवाद को ललकारती है। प्रेम श्रद्धा से होता हुआ भक्ति, उपासना तक की उत्तरोत्तर उत्कर्षयात्रा पार करता है। 'रत्नसेन-सूली-खंड' में जायसी की उदार दृष्टि का प्रतिनिधित्व है। सब पूछहिं कहु जोगी, जाति जनम औ नांव। रत्नसेन उत्तर देता है :
का पूछहु अब जाति हमारी। हम जोगी औ तपा भिखारी
जोगिहि कौन जाति हो राजा। गारि न कोह, मारि नहिं लाजा जायसी के लिए प्रेम-सौंदर्य का उदात्त रूप ही मंगलकारी है और अपने इस वांछित आशय की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने पात्रों को माध्यम बनाया। कविता केवल वक्तव्य नहीं है, कथा-काव्य में उसे चरित्रों के कर्म से प्रमाणित भी करना होता है। पद्मावती सर्वोपरि चरित्र है, गुण-संपन्न, वैसी ज्योति और कहाँ : पुनि
ओहि जोति और को दूजी। पर नागमती, जिसे साधारण माना गया, वह भी अपनी वियोग-स्थिति में हमारी सहानुभूति की पात्र है और उसमें भी इस दृष्टि से एक चारित्रिक सौंदर्य उभरता है कि वह पति की प्रतीक्षा करती है। कागा से कहती है कि सारा तन, सब मांस खा जाना पर : दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस । जायसी सौंदर्य-वर्णन में प्रचलित उपमाओं का प्रयोग करते हुए, परंपरा निभाते हैं, पर उनकी दृष्टि निरंतर गुण-धर्म पर है। इसलिए पद्मावती के लिए वे बराबर 'रूप' शब्द का प्रयोग करते हैं और गुणसंपन्न सौंदर्य ही रूप प्राप्त कर सकता है। जायसी के लिए प्रेम और सौंदर्य गुणमूलक हैं-मानवीय उदात्तता का बोध कराते : पावा रूप रूप जस चहा, ससि मुख जनु दरपन होइ रहा :
मुहमद कवि जो प्रेम का, ना तन रकत न मांस जेई मुख देखा, तेहि हंसा, सुना तो आए आंसु
तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझि पेम छाँड़ि नहि लोन किछु जो देखा मन बूझि
मलिक मुहम्मद जायसी : पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु / 119