________________ मालिनी गुरुषु विनयवृत्तिं बन्धुषु प्रेमबन्ध रिपुषु करकृपाणं दर्शयन्नाहयेषु। अधिगतनयसिन्धुः 'सत्यसन्धः स राजा रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार।७३ / / शार्दूलविक्रीडितम् धर्म्य वमनि तेजसा नियमयन् 'वांस्तथैवाश्रमान' वृद्धाराधनया हृषीकविजयादुत्तीर्णविद्यार्णवः। पारावारपरम्परीणपरमख्यातिर्नयोत्कृष्टधीरासेविष्ट यशोधरो नरपतिर्दीर्घ त्रिवर्गश्रियम् / / 74 / / इति श्रीमद्वादिराज सूरिविरविते यशोधरचरिते महाकाव्ये चतुर्थः सर्गः जो गुरुओं में विनयवृत्ति, बन्धुओं में प्रेमबन्ध और युद्ध में शत्रुओं पर हाथ की तलवार दिखाता था, जिसने नीति के सागर को जान लिया था, जो सत्य प्रतिज्ञा वाला था तथा रण के अग्रभाग में विजय प्राप्त करने वाला सिंह था ऐसा वह राजा यशोधर राजलक्ष्मी को थारण करता था ||73 / / ___जो अपने तेज से वर्णों तथा आश्रमों को धर्ममार्ग में नियमित रखता था, वृद्धों की सेवा और इन्द्रियों की विजय से जिसने विद्यारूपी सागर को पार किया था, जिसकी उत्कृष्ट ख्याति समुद्र के उस पार जा पहुंची थी तथा नीतिविज्ञान से जिसकी बुद्धि उत्कृष्ट धी ऐसा वह यशोथर राजा दीर्घकाल तक त्रिवर्गलक्ष्मी की सेवा करता रहा। भावार्थ - धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गों इस प्रकार यादिराजसूरि विरचित यशोथरचरित नामक महाकाव्य में चौथा सर्ग समाप्त हुआ। 1. सत्यप्रतिज्ञः 2. ब्राह्मणादीन् 3. ब्रह्मचर्यादीन्