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__ मित्र के उन वचनों का विचार कर राजा ने उन मुनिराज के चरणों में आदरपूर्वक प्रणाम किया और मन में ऐसा विचार किया कि मैं सिर के द्वारा इनकी पूजा करता हुआ शीघ्र ही अपराध की शुद्धि करूँ ।।४८ ।।
मुनिराज ने अपना सिर काटने के इच्छुक राजा को हाथ से मना कर उसके हृदय की बात कही। राजा को बड़ा विस्मय हुआ कि इन्होंने बिना कहे मेरे हृदय की बात कैसे जान ली। अन्त में उसने आदरपूर्वक अपने पितामह आदि की गति पूछी ।।४६।।
तदनन्तर मुनिराज ने अवधिज्ञान से जैसा देखा यैसा राजा की इच्छित वस्तु को कहा। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पितामह राजा यशोघ तप के प्रभाव से अतिशय श्रेष्ट छठे स्वर्ग में गये हैं।।१०।।
वे वहाँ दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं, तेज के द्वारा नवीन उदित सूर्य के समान हैं, देवीसमूह के साथ उपभोग करते हैं और मनोरथों को पूर्ण करते हुए दिन-रात क्रीड़ा करते रहते हैं।।११।।
हे वत्स! तुम्हारी माता भी विष के द्वारा अपने ही पति को मारकर कुष्ठिनी हुई और मरकर पांचवीं पृथियी में जाकर अत्यन्त दुखी होती हुई कष्ट भोग रही है।।५२॥
तुम्हारे पिता यशोधर कृत्रिम पक्षी को मारकर उसके दोष से क्रमशः मयूर, सेही, मच्छ, दो यार बकरा और मुर्गा हुए हैं। ।५३ ।।