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अपने हृदय के भाव सरलभाषा में प्रकट किये हैं। इस स्तोत्र के पढ़ने से हृदय में भक्ति का वास्तविक रूप प्रकट होता है। एकीभाव की रचना के विषय में चमत्कारपूर्ण कथा प्रसिद्ध है । पूर्वकर्मोदय से वादिराज मुनि के शरीर में कुष्ठ रोग हो गए । राजसभा में किसी ने कहा कि जैन मुनि कोढ़ी है, दर्शनीय नहीं है। सभा में उपस्थित भव्य गृहस्थ ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि जैनमुनि कोढ़ी नहीं किन्तु सुन्दर शरीर के धारक हैं। राजा ने कहा- मैं कल सुबह मुनिराज के दर्शन करने के लिए आऊँगा । भव्य गृहस्थ ने यह बात मुनिराज से कही। मुनिराज ने एकीभाव स्तोत्र की रचना कर जिनदेव रूपी सृवं की स्तुति की। स्तुति के प्रभाव से उनका कुष्ट रोग दूर होकर शरीर सुन्दर हो गया। इस चमत्कार से जैनधर्म की अद्भुत प्रभावना हुई। यह एकीभावस्तोत्र 'कल्याणकल्पद्रुम' नाम से भी प्रसिद्ध है।
न्यायविनिश्चय विवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय नामक तर्कग्रन्थ पर वादिराज ने न्यायविनिश्चय विवरण नामक टीका लिखी है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रतिज्ञावाक्य इस प्रकार है
इसमें बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, वैशेषिक तथा सांख्य दर्शन की सुयुक्तियुक्त समीक्षा की गयी है। भाषा प्रवाहपूर्ण है।
हुआ
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प्रमाणनिर्णय - इस लघुकाय ग्रन्थ में प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षनिर्णय और आगमनिर्णय ये चार प्रकरण हैं। अन्य दर्शनकारों द्वारा मान्य प्रमाणलक्षण का निराकरण कर सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण सिद्ध किया गया है के । अनुमान अङ्गों पर भी अच्छा विचार किया गया है । पञ्चरूप्य और त्रैरूप्य का निरसन कर अन्यथानुपपत्ति को सच्चा हेतु सिद्ध किया गया है।
वादिराजमनुशाब्दिकलोको इस उक्ति से इनके व्याकरण होने की बात कही गयी है पर इनके द्वारा रचित व्याकरण का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं
है
प्रणिपत्य स्थिरभक्त्या गुरूपरानप्युदारबुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ।।
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