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अथात वैयाकरण, ताकिंक-न्यायशास्त्र के ज्ञाता, काव्य-निर्माण करने वाले कवि और रत्नत्रय के धारक भव्य जीवों के सहायक परमोपकारक वादिराज से पीछे हैं - उनकी समता नहीं करते।
षट्तभूषण, स्याद्वादविद्यापति और 'जगदेकमनदादी' इनकी उपाधियाँ थीं। 'वादिराज' वह नाम भी मुचित करता है कि ये अनेक वादियों को जीतने वाले थे। मल्लिषेप प्रशस्ति में इनें वादिविजेता और कवि के रूप में स्तुत किया गया है। इनके विषय में यह प्रसिद्ध है .
त्रैलोक्यदीपिकावाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह ।
जिनराजन एकस्मादेकम्माद्वादिग़लतः।। अर्थात् तीन लोकों को प्रकाशित करने वाली वाणी इस वसुधा पर दो से ही प्रकट हुई है . एक जिनराज और दूसरे वादिराज से ।
इनके द्वारा लिखित निम्नाकित ग्रन्थ उपलब्ध हैं - १. पाश्वनाथचरित २. यशोधरचरित ३. एकीभाव स्तोत्र ४. सिद्धिविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिणन्न ।
। इनमें पाश्वनाथचरित और यशोधरचरित काव्यगन्ध है, एकी भाव स्तोत्र भक्ति-काव्य है और शेप दो ग्रन्थ न्यान से सम्बन्ध रखने वाले हैं। ___पार्श्वनाथचरित में दस सर्ग है. इसमें भगवान् पाश्वनाथ का चरित काव्य की शैली में लिखा गया है। रम-अन्नकार. रीति और गुणों की विधाओं से परिपूर्ण है। भाषा और भाव की दृष्टि से रचना अनुपम है।
यशोथरचरित चार सर्गों में विभक्त है। प्रथम सर्ग में ६२. द्वितीय सर्ग में ७५, तृतीय सर्ग में ८३ और चतुथं सग में ७४ पद्य हैं। कथावस्तु यशस्तिनकत्रम्र के समान है, जो इसी प्रास्ताविक लेख के प्रारम्भ में दी गयी
एकीभाव स्तोत्र : वह भक्तिकाव्य है, जिसमें भक्त ने भगवान् के प्रति
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