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यौधेव देश के राजपुर नगर का राजा मारिदन था। उसे एक दिन वीरभैरव नामक कापालिक आचार्य ने बताया कि यदि चण्डमारी देवी के मन्दिर में सब पशुओं तथा मनुष्ययुगलों की बलि चढ़ाई जाय तो तुम विद्याधर-लोक के स्वामी हो जाओगे। कापालिक की बात सुन कर उसने चण्डमारी देवता के मन्दिर में सब पशु पक्षियों के युगल एकत्र करा लिये और मनुष्यों का युगल प्राप्त करने के लिए सेवक भेजे। पूर्वोक्त क्षुल्लक क्षुल्लिका जो भाई-बहिन थे आचार्य सुदन की आज्ञा से नगर में चर्चा के लिये गये थे। राजा के सेवक उन्हें पकड़ कर यण्डमारी देवता के मन्दिर ले गये।
क्षुल्लक-क्षुल्लिका की प्रशान्त मुद्रा से प्रभावित होकर मारिदत्त राजा ने उनसे अल्पवय में दीक्षित होने का कारण पूछा। उन्होंने पूर्वोक्त कारण बताते हुए सुदत्त आचार्य का परिचय दिया। होनहार अच्छी होने से मारिदन उनके दर्शन के लिए गया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर उसने समस्त जीवों की हिंसा का त्याग कर दिया।
यह है - यशोधर रेत की कथावस्तु। बलि प्रथा के रोकने वाली इस कथा का लोक में इतना प्रभाव बढ़ा कि इस पर संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत तथा देश की अन्यान्य भाषाओं में ग्रन्ध लिखे गये। श्री वादिराज आचार्य द्वाग निखित यशोवरचरित लघुकाय काव्य होने पर भी भाषा और भाव के मद्य से परिपूर्ण है। इसी बिश्य पर सोमदेव आचार्य ने यशस्तित्नक चम्पू नामक विशाह चम्पूकाव्य लिरना, जिसकी गद्य-छटा कादम्बरी की गद्यछटा से भी बढ़ कर है, विषय-संकलना की अपेक्षा भी यह अद्वितीय है। वादिराजसूरि __यशोधरचरित के रचयिता गदिराज सूरि हैं। एकीभाव स्तोत्र का अन्तिम श्लोक इनके वैदुष्य पर पूर्ण प्रकाश डालता है -
वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किकसिंहः । वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहायः ।।
+ सान 4---