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बात कर रहे हैं। दुराचार की बात फैले नहीं इसलिए उसने उस बात के पुगे में विष मिला कर बन्द्रमली और यशेयर को उसका भोजन करा दिया। इस पाप के कारण अमतपती रानी तो नरक गयी और चन्द्रमती माता और राजा यशोधर के जीव लह भवों लक पशुगेनि में जन्ममरण करते रहे।
प्रथम भव में यशोधर मोर हुआ और मा चन्द्रमती का जीय कुत्ता हुआ: द्वितीय भव में यशेवर हरिण हुआ और वन्द्रमती सर्प हुई। तृतीय भव में दोनों शिप्रा नदी में अनजन्तु हुए। यशोधर का जीव मछनी हुआ और चन्द्रमती का जाय गर हुआ। चतुर्थ जन्म में दोनों बकरा-अकरी हुए। पंचम जन्म में यशोधर बकरा हुआ और चन्द्रमती कलिंग देश में मैंरा हुई। छठे भव में यशोधर मुगां और चन्द्रमती मुगी हुई। पुगः -मुगी का मालिक वसन्तोत्सव में कुक्कुट युद्ध दिखाने के लिए उन्हें उन्नयिनी ले गया। वहाँ सुदत्त नाम के आचार्य टहरे हुए थे। उनके उपदेश से दोनों को जातिस्मरण हो गया। जिससे वे अपने दुष्कृत्य पर पश्चाताप करने लगे : आगामी जन्म में वे राजा यशोमति
और ग़नी कुसुमावली के युगन पुत्र पुत्री हुए। दोनों अत्यन्त सुन्दर थे। भाई अहिन थे। पुत्र का नाम अभयचि और पुत्री का नाम अभवमती रखा गया।
एक बार गजा यशोमति जो कि राजा यशोधर का पुत्र था. अपने परिवार के साथ अनधिज्ञानी गुदन आचार्य के दर्शन करने के लिये गया। उपदेश सुनने के बाद उसने अपने पूर्वजों का वर्णन पूष्ठा। दिव्य ज्ञानी सुटत्न आचार्य ने कहा कि तुम्हारे पितामह यशोध अथवा यशबन्धु अपने तपश्चरण के प्रमाव से स्वर्ग के सुख भोग रहे हैं और तुम्हारी माता स्नृतमा विष देने के कारण नरक गयी है। तुम्हारे पिता यशोधर और उनकी माता चन्द्रमती आटे के भुग की बलि देने से छह मवों से पशु योनि में दुःख रटा कर अव पाप के प्रति पश्चाताप होने से तुम्हारे पुत्र और पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए हैं। सुदन्त आचार्य के उपयुक्त वचन मुनकर उन भाई बहिन को जातिस्मरण हुआ है इसलिए उन्होंने संसारममण से भयभीत हो बाल्य अवस्था में ही शुन्नक-शुलिनका के छत गृहण किये हैं। ये निकट भव्य हैं।