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समय पाकर कुसुमावली ने एक साथ एक पुत्र और एक पुत्री को उत्पन्न किया। उन दोनों में जो पुरुष था वह यशोधर था और जो कन्या थी वह चन्द्रमती थी। चन्द्रमा और उसकी प्रभा के समान मनुष्यों के नेत्रों के लिए अमृतस्वरूप वे दोनों निरन्तर बढ़ने लगे।।३६ ।।
जब वे बालक और बालिका शैशर अवस्था को छोड़ केशोर अवस्था में आकर उत्तम विद्याओं में परिश्रम करने लगे तब एक दिन राजा बन में ध्यानारूढ़ मुनि को देखता हुआ ही मृगवन में गया ।।३७ ।।
तदनन्तर मृगों की हिंसा न पाकर शुष्क मुख से लौटते हुए राजा ने शिकार में विघ्न करने वाला यह मुनि ही है, यह विचार कर उन मुनि पर पाँचसी कुत्ते छोड़ दिये ।।३८ ।।
जब तप के प्रभाव से उन पांच सौ कुत्तों ने मुनि का घात नहीं किया तब राजा का मत्सर भाव बढ़ गया. वह स्वयं अपने हाथ से उनका घात करने के लिये उद्यत हुआ। उसी समय प्रसङ्गवश राजा का कल्याणकारी मित्र एक वणिक् वहा पर आ पहुंचा ।।३६।।
उन मनिराज पर होने वाले उपद्रव को देखते हुए उस वणिक ने उस समय राजा यशोमति से इस प्रकार कहा कि हे देव! नमस्कार करने के योग्य महामुनि के विषय में यहा ऐसा करने के लिये क्या आप योग्य है?।।४० ।।
दूसरी बात यह है कि इनके विषय में की हुई जो दुष्ट चेष्टा है बही मव-भव में कल्याण का अपहरण करती है। इतना होने पर भी मन को सदा स्थिर रखने वाले ये मुनिराज इन्द्र के लिये भी अजेय शक्ति वाले हैं। भावार्थ - इन्हें जीतने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है ।।४११॥