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नेर :
सराग सम्यक्त्व रूप गुण तथा व्रतों के द्वारा यह जीव अपने आप में पुण्य का बन्ध करता है। विशाल बुद्धि के धारक गणधरादिक देव जीवादि पदार्थविषयक श्रद्धा को सम्यक्त्व कहते हैं । । २४ ॥
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्राह्मचर्य और विषयों में मोहित नहीं होना अपरिग्रह ये पाँच व्रत हैं। विद्वानों द्वारा उन व्रतों का फल पृथक् पृथक् इस प्रकार कहा जाता है ।। २५ ।।
अहिंसा, वैर की हरने वाला उत्कृष्ट साधन है; सत्य, अमोघवाक्यता को विस्तृत करता है अर्थात् सत्य बोलने वाले मनुष्य के वचन कभी व्यर्थ नहीं जाते; अचौर्यव्रत, रत्नसमूह को आकर्षित करता है और बलिष्ट ब्रह्मचर्य व्रत, बल को उत्पन्न करने वाला है
।।२६ ।।
अमूर्च्छा - अपरिग्रह, ती मनुष्य के पूर्व और आगामी भव को सूचित करने वाला है। जो सत्पुरुष व्रतों को विधिवत् पुष्ट करना चाहते हैं वे मधु मद्य और मांस का त्याग करते हैं ।। २७ ।।
मैंने पृथक्-पृथक् विवेचन कर सम्यक्त्व का वर्णन किया है। आत्मा के लिये इसके सिवाय अन्य कुछ हितकारी नहीं है। जो मनुष्य सम्यक्त्व को धारण करता है वह व्रतों से विहीन होने पर भी दुःखादि के निवास को प्राप्त नहीं होता । । २८ ।।
इस संसार में अबतों के द्वारा मनुष्य कष्टदायक संसाररूपी नाट्यशाला में प्रवेश कर तथा नाना प्रकार की योनि रूपी वेष को धारण कर परिभ्रमण करता हुआ मात्र क्लेश को प्राप्त होता है ।। २६ ।।
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