________________
-33 ܢ
मुनिराज ने कहा कि तुम तीन उत्तर सुनो। जिस प्रकार अरणि वृक्ष के खण्डखण्ड कर देने पर भी उसके मन्थन के बिना उसमें रहने वाली अग्नि दिखायी नहीं देती उसी प्रकार शरीर के खण्ड-खण्ड होने पर भी उसके भीतर रहने वाला जीव दिखायी नहीं देता, ऐसा तुम निश्चय से जानो ।। १८ ।।
जिस प्रकार कोई मनुष्य (धोंकनी) भस्त्रा को पहले तराजू से तौल कर पश्चात् पूर्ण हवा से युक्त कर देखता है तो उसे उसके प्रमाण में कोई भेद नहीं दिखाया देता. इसी प्रकार शरीर और आत्मा के पृथ होने पर भी उसमें कोई भेद नहीं मालूम होता, ऐसा निश्चय है ||१६||
जैसे कोई पुरुष छिद्ररहित घर में प्रवेश कर ऊँचे शब्द वाला शंख जोर से फूंकता है तो उसकी ध्वनि बाहर तो जाती है पर उसका मार्ग नहीं होता । उसी प्रकार शरीर से जीव बाहर हो जाता है पर उसका मार्ग नहीं होता। ऐसा तुम विचार कर श्रद्धान करो ||२०||
वह जीव कैसा है ? यदि यह जानना चाहते हो तो कहते हैं। वह जीव महान् है अर्थात् लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी हैं, अनादि अनन्त है, स्वपर - प्रकाशक है तथा निज और पर कारणों से प्रतिक्षण परिवर्तन करता रहता है। इसका पूर्वक्षण का परिणमन हेतु कारण और उत्तर क्षण का परिणमन फल - कार्य रूप होता है। यह कारण कार्य रूप परिणमन क्रम से होता है । । ३१ ।।
-
निश्चय से वह जीव ही पुण्य-पाप का कर्ता है, वही सुख-दुःख का भोक्ता है और वही उपायसिद्धि की भावना से युक्त होता हुआ कर्ममल से मुक्त होता है ।। २२ ।।
उपायसिद्धि की भावना का प्रयोजन है हित का ज्ञान कर अहित को छोड़ना । प्राणियों के लिये यह सम्यक्त्व हित है और उससे विपरीत मिथ्यात्व अहित है ।। २३ ।।